Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 150
________________ अपभ्रंश भारती 19 141 65. महिहिं भमंतहं तेण पर, जे पुर घर दीसंति। पर भाउ व 'सुप्पउ भणई', मुवा न कह व मिलंति॥64.1॥ अर्थ - इस पृथ्वी पर भ्रमण करते हुओं के द्वारा जो घर-नगर (आदि) देखे जाते हैं वे सब पर-पदार्थ हैं। सुप्रभ कहते हैं - (उनसे) किसी भी प्रकार आनन्द/खुशी नहीं मिलती। मुआ = हर्ष, आनन्द 66. सोय रुवइ ‘सुप्पउ भणइ', जसु कर दाणु विहंतु। जो पुणु संचइ धणु जि धणु, जो घर संढ न भंति॥65॥ - अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - जिसका हाथ दानरहित है वह रोता है (अर्थात् दुःखी रहता है) और जो धन ही धन का संचय करता है (उसका) घर अभव्य (अकर्मण्य) का है, इसमें कोई भ्रांति नहीं। संढ → षण्ढ = सृजन कर सकने में असमर्थ, अभव्य, अकर्मण्य।

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