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अपभ्रंश भारती 19
75. इह घर-घरिणि एहु सुहि, पहु' बधउ गिह रंगि। 76. णच्चावइ बहुभंगि, मोह-गह-गहिउ सु णच्चइ।
णिय हिए थिउ किंपि तत्थ, अप्पा णउ वंचइ॥ णच्चावइ बहु भंगि, भंगि कालगी थियत्तहँ।
जिणि हिंडइ संसारु, सुखु नहु लहइ खणु वि इह ॥75॥ अर्थ - मोह जीवों को अनेक प्रकार नचाता है और आसक्ति से आक्रान्त जीव/आत्मा नाचता है। (यदि जीव) अपने हृदय में/आत्मा में किंचित् भी स्थिर होवे तो अपने को ठगाये नहीं।
(2) (जिस प्रकार मोह जीव को) विविध प्रकार नचाता है उसी प्रकार काल की अग्नि (मृत्युरूपी अग्नि) है जो स्थिर का भी विनाश कर देती है। जो संसार में भ्रमण करता है (वह) यहाँ क्षणभर भी सुख नहीं पाता।
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जयपुर-4
जिणि हिडइ संसारु, सुखु नहु लहइ खणु वि इह।।75॥
अर्थ - मोह जीवों को अनेक प्रकार नचाता है और आसक्ति से आक्रान्त जीव/आत्मा नाचता है। (यदि जीव) अपने हृदय में/आत्मा में किंचित् भी स्थिर होवे तो अपने को ठगाये नहीं।
(2) (जिस प्रकार मोह जीव को) विविध प्रकार नचाता है उसी प्रकार काल की अग्नि (मृत्युरूपी अग्नि) है जो स्थिर का भी विनाश कर देती है। जो संसार में भ्रमण करता है (वह) यहाँ क्षणभर भी सुख नहीं पाता।
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जयपुर-4