Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 153
________________ 144 अपभ्रंश भारती 19 71. उत्तम पुरिसहं कोडि सय, दिणे-दिणे गिलइ असारु। 'सुप्पय' खाइ ण धाइ पर, तुहि रक्खसु संसारु ।।70॥ अर्थ - उत्तम पुरुषों/महान आत्माओं के सहस्रों-करोड़ों (धन होता है, पर वे उसे) निस्सार (समझकर) दिन-दिन (उसके प्रति) उदासीन होते जाते हैं। सुप्रभ कहते हैं - (रे मन !) तू खाता (रहता) है पर तृप्त नहीं होता (अतः तू अपने) संसार को (भव-भ्रमण को) सुरक्षित करता है (अर्थात् आगे के लिए बढ़ा लेता है)। 72. विलवं लउ ‘सुप्पउ भणई', घरे महि पडि वद्ध। पेक्खंतहं सुहि सज्जणहं, को कालें णहु खद्ध ॥71॥ . __ अर्थ - (हे मनुष्य !) (जोर-जोर से) विलाप करके/रोकर (यदि अपने प्रिय मृत व्यक्ति को) घर में रोक सकता है (तो) (रोक ले)। सुप्रभ कहते हैं - देखे जाते हुए सज्जन और विद्वान (आदि) क्या काल के द्वारा खाये हुए नहीं हैं ?

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