Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 151
________________ 142 अपभ्रंश भारती 19 67. जेतिउ तुडि चडि धावइ दमहो', तेत्तिउ जइ सहसा गुण-धम्महो। अरि जिय ‘सुप्पउ भणई', असारहो कं दुप्पाडु होइ संसारहो।59॥ अर्थ - जितने उतावलेपन पर सवार होकर (चढ़कर) (शीघ्रता से) कामनाओं/इन्द्रिय-सुखों के लिए भाग-दौड़ करते हो यदि उतना उतावलापन/ शीघ्रता धर्म एवं गुणों के लिए करो तो सुप्रभ कहते हैं - इस असार संसार का दृढ़ता से उन्मूलन हो जाये। 1.C. वम्महु = कामना, इन्द्रिय-सुख की इच्छा यहाँ अर्थ में 'C' प्रति के इस शब्द को आधार माना है। 68. वल्लहु अवगुण दावइ जेतिउ, ‘सुप्पउ' लाहु गणिज्जइ तेत्तिउ। जिम जिम खउ उपज्जइ णेहहो, तिम-तिम मणु मुचइ सं देहहो॥67॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - प्रिय (देह) के जितने अवगुण दिखाये जाते हैं उतना ही लाभ गिना (समझा) जाता है। जैसे-जैसे (देह से) नेह का (प्रेम का) क्षय/ह्रास उपजता जाता है वैसे-वैसे मन देह की सुन्दरता से मुक्त होता जाता है। स = सुन्दरता

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