Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 152
________________ अपभ्रंश भारती 19 143 69. हियडा केतिउ दस-दिसु धावहि, दुक्कर रे हिय-इच्छिउ पावहि। ‘सुप्पई तुडि चडि लब्भइ तेत्तिउ, अन्न भवंतरि दिणउ जेतिउ॥68॥ अर्थ - रे मन ! (तू) दशों दिशाओं में कितनी ही भाग-दौड़ कर (पर) मनवांछित को पाना बहुत कठिन है/दुष्कर है। सुप्रभ कहते हैं - कम या अधिक, दूसरे भव में उतना ही पाता है जितना दिया हुआ है (अर्थात् जितना दान दिया है उतना ही मिलेगा)। तुडि = कम, चडि = ऊँचा (अधिक) 70. रे हियडा ‘सुप्पउ भणई', किण फेट्टहि रोवंतु। पिउ पिछेहि मसाण डइ, एक्कल्लउ डझंतु ।।69॥ __ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - रे मन ! (प्रिय के वियोग में) पछाड़ खाकर क्यों रोता है? देख! (तेरा) प्रिय (तो) श्मशान में अकेला जलता हुआ है/जल रहा है !

Loading...

Page Navigation
1 ... 150 151 152 153 154 155 156