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अपभ्रंश भारती 19
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69. हियडा केतिउ दस-दिसु धावहि, दुक्कर रे हिय-इच्छिउ पावहि।
‘सुप्पई तुडि चडि लब्भइ तेत्तिउ, अन्न भवंतरि दिणउ जेतिउ॥68॥
अर्थ - रे मन ! (तू) दशों दिशाओं में कितनी ही भाग-दौड़ कर (पर) मनवांछित को पाना बहुत कठिन है/दुष्कर है। सुप्रभ कहते हैं - कम या अधिक, दूसरे भव में उतना ही पाता है जितना दिया हुआ है (अर्थात् जितना दान दिया है उतना ही मिलेगा)।
तुडि = कम, चडि = ऊँचा (अधिक)
70. रे हियडा ‘सुप्पउ भणई', किण फेट्टहि रोवंतु।
पिउ पिछेहि मसाण डइ, एक्कल्लउ डझंतु ।।69॥
__ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - रे मन ! (प्रिय के वियोग में) पछाड़ खाकर क्यों रोता है? देख! (तेरा) प्रिय (तो) श्मशान में अकेला जलता हुआ है/जल रहा है !