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अपभ्रंश भारती 19
51. जसु पोसण-कारणेण णरु, कज्जाकज्जु करेइ।
'सुप्पई' सो जि कुडंवडउ, चप्पेवि णरयहो णेइ॥1॥
अर्थ - मनुष्य जिस कुटुम्ब के पालन-पोषण के लिए/कारण कार्यअकार्य (करणीय-अकरणीय) करता है, सुप्रभ कहते हैं - वह (कुटुम्ब) ही उसे दबाकर नरक को ले जाता है।
52. रे मूढा ‘सुप्पउ भणई', धणु दिंतहं थिरु होइ।
जइ कल संचइ ससि गयणे, पुणु खिज्जंतउ जोइ॥52॥ .
अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - रे मूढ ! दिया हुआ धन ही स्थिर होता है। (देख) गगन में चन्द्रमा कलाओं का संचय करता है, (पर) फिर (उसकी) ज्योति क्षीण होती जाती है। (अर्थात् धन दान द्वारा स्थिर होता है, संचय से नहीं)।