Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 144
________________ अपभ्रंश भारती 19 53. घर सुक्खड़ 'सुप्पउ भणइ', जिय माणिज्जहिं तेम । इंदिय-चोरहं धम्मधणु, तुव न लहिज्जइ जेम ॥53॥ अर्थ सुप्रभ कहते हैं हे जिय ! जिस प्रकार इन्द्रियरूपी चोरों के द्वारा तुम्हारा धर्मरूपी धन नहीं प्राप्त किया जाता (नहीं चुराया जाता ) उसी प्रकार यह माना जाय कि घर से सुख ( प्राप्त नहीं किया जा सकता)। - 54. यि घर सुक्खड़ पंच दिण, अणु दिणु दुक्खहं लक्खु । मुणि अप्पा 'सुप्पर भणई', जेण विढप्पड़ मुक्खु ' ॥54॥ अर्थ सुप्रभ कहते हैं ( हे जिय ! ) सुख अवधि) का होता है और दुःख प्रतिदिन लाखों होते हैं आत्मा को समझ जिससे अपना (निज का ) घर 'मोक्ष' । - - 135 1.C. मोक्खु यहाँ अर्थ में 'C' प्रति के इस शब्द को आधार माना है । पाँच दिन (अल्प (इसलिए हे जिय!) उपलब्ध होवे ।

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