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अपभ्रंश भारती 19
57. रोवंतह ‘सुप्पउ भणई', अरि जिय दुक्खु कि जाइ।
जा मण इंदिय-गुणरहिउ भाउ णिरामइ ठाइ ||57 ॥
अर्थ रोते हुए लोगों के लिए सुप्रभ कहते हैं अरे जिय ! (इस प्रकार रोकर) दुःख क्यों उत्पन्न किया जाता है ! ( देख !) जो मनुष्य इन्द्रियबंधन से रहित होता है वह निर्मल / निर्दोष स्व-भाव में स्थिर हो जाता है ।
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58. रोवंतहं 'सुप्पउ भणई', सो वि ण्डइ अप्पाणु। झाणब्भंतरि पुरइ, तहिं समरसु तं जिय णाणु ॥58 ॥
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अर्थ
सुप्रभ कहते हैं
( जो ) रोता हुआ है वह अपने को व्याकुल करता है (और) (जो) ध्यान के भीतर डूब जाता है ( मग्न हो जाता है) हे जिय ! वह ज्ञान से / चैतन्य से समरस ( एकमेक / तादात्म्य) हो जाता है।
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