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अपभ्रंश भारती 19
55. 'सुप्पउ भणई' न वीसरहु, वा दुलेहि णिव्वाणु।
जा मण मणु मारिवि सु णिउं, अप्पाणे अप्पाणु॥55॥
अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - हे मनुष्य ! तब तक उस दुर्लभ निर्वाण को मत भूल जब तक मन को मारकर आत्मा के द्वारा आत्मा को भली प्रकार देखने के लिए (जानने के लिए) (समर्थ न हो जाये)।
णिउं = देखने के लिए
56. अह हरि पुज्जहु अहव हरु, अह जिणु अह बंभाणु।
'सुप्पउ भणइ' रि जोयहो, सव्वहं भाउ पवाणु'॥56॥
अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - हे जोगी ! तू हरि को पूज या शंकर को, या जिनेन्द्र को, या ब्रह्मा को ! सर्वत्र/सबमें भाव ही प्रमाण हैं/निर्णायक हैं।
1.C. पमाणु यहाँ अर्थ में 'C' प्रति के इस शब्द को आधार माना है।