Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 142
________________ अपभ्रंश भारती 19 133 49. अरे जिय सुणि 'सुप्पउ भणई', धण जोवणहं म मजि। परिहरि घरु लइ दिक्खडी, तणु णिव्वाणहं सज्जि॥49॥ अर्थ - हे जिय ! सुन, सुप्रभ कहते हैं - धन-यौवन का अभिमान मत कर। घर को त्यागकर दीक्षा ले ले (धारण कर ले) (और) मुक्ति/ निर्वाण का आलिंगन कर सिद्धशिला (पहुँच)। तणु = सिद्धशिला; सज्जि = आलिंगन कर। 50. जीव म धम्मो हाणि करिय, सपरियण'-कज्जेण। किं न पेक्खहिं 'सुप्पउ भणई', जणु खज्जंतु जमेण ॥50॥ अर्थ - हे जीव ! घर और परिजनों के कारण धर्म की हानि मत कर। सुप्रभ कहते हैं - (सोच!) जब मनुष्य (जीव) मृत्यु के द्वारा खाया जाता है तब कौन (उसकी) रक्षा करता है? 1.C. घर-परियण, 2.C. किम रखेहि यहाँ अर्थ में 'C' प्रति के शब्दों को आधार माना गया है।

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