Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 141
________________ 132 अपभ्रंश भारती 19 47. हियडा काई चडपडहिं, घर-परियण संतुङ। णउ जाणहि ‘सुप्पउ भणई', जइ एवहिं तुहुं मुट्ठ॥47॥ अर्थ - हे मन ! घर-परिवारजन को सन्तुष्ट (करने के लिए) क्यों छटपटाता है? सुप्रभ कहते हैं - (तू) नहीं जानता कि इस प्रकार (वे) विजयी (रहते हैं और) तू ठगाया हुआ/वंचित रहता है। मुट्ठ = वंचित, जिसके माल की चोरी हो गई। 48. हियडा मंडिवि घरु -घरिणि, किं अछहिं णिचिंतु। धणु जोवणु ‘सुप्पउ भणई', ण सहइ घडिय कयंतु॥48॥ . अर्थ - हे मन ! घर और पत्नी को बना-सँवार कर (अर्थात् गृहस्थी बसाकर) निश्चिन्त कैसे बैठे हो ! सुप्रभ कहते हैं - यम/मृत्यु धन (व) यौवन को एक घड़ी भी सहन नहीं करता।

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