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अपभ्रंश भारती 19
47. हियडा काई चडपडहिं, घर-परियण संतुङ।
णउ जाणहि ‘सुप्पउ भणई', जइ एवहिं तुहुं मुट्ठ॥47॥
अर्थ - हे मन ! घर-परिवारजन को सन्तुष्ट (करने के लिए) क्यों छटपटाता है? सुप्रभ कहते हैं - (तू) नहीं जानता कि इस प्रकार (वे) विजयी (रहते हैं और) तू ठगाया हुआ/वंचित रहता है।
मुट्ठ = वंचित, जिसके माल की चोरी हो गई।
48. हियडा मंडिवि घरु -घरिणि, किं अछहिं णिचिंतु।
धणु जोवणु ‘सुप्पउ भणई', ण सहइ घडिय कयंतु॥48॥ .
अर्थ - हे मन ! घर और पत्नी को बना-सँवार कर (अर्थात् गृहस्थी बसाकर) निश्चिन्त कैसे बैठे हो ! सुप्रभ कहते हैं - यम/मृत्यु धन (व) यौवन को एक घड़ी भी सहन नहीं करता।