Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 139
________________ 130 अपभ्रंश भारती 19 43. जणु जज्जरु 'सुप्पउ भणई', जइ दुक्खेहिं न होंतु। संजम सारउ तवयरणु, कोहत्थेन विडंबु ॥44॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - जो जन/मनुष्य श्रेष्ठ संयम और तप का आचरण (करते हैं) वे यति (होते) हैं, (वे) न दुःखों से जीर्ण होते हुए हैं न क्रोध से विनष्ट होते हुए हैं। 44. कवणु सयाणउं जीव तुहुं, बहुविह रूव धरंतु । ___भव-पेरण ‘सुप्पउ भणई', किं न लज्जहिं णच्चंतु॥4॥ . अर्थ - हे जीव ! (ये तेरा) कैसा सयानापन है कि तू अनेक प्रकार के रूप धरता हुआ भव-भ्रमण (कर रहा है)। सुप्रभ कहते हैं - (इसप्रकार भव-भव में) नाचते हुए क्या तू लजाता नहीं है (क्या तुझे लज्जा नहीं आती)?

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