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अपभ्रंश भारती 19
43. जणु जज्जरु 'सुप्पउ भणई', जइ दुक्खेहिं न होंतु।
संजम सारउ तवयरणु, कोहत्थेन विडंबु ॥44॥
अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - जो जन/मनुष्य श्रेष्ठ संयम और तप का आचरण (करते हैं) वे यति (होते) हैं, (वे) न दुःखों से जीर्ण होते हुए हैं न क्रोध से विनष्ट होते हुए हैं।
44. कवणु सयाणउं जीव तुहुं, बहुविह रूव धरंतु । ___भव-पेरण ‘सुप्पउ भणई', किं न लज्जहिं णच्चंतु॥4॥ .
अर्थ - हे जीव ! (ये तेरा) कैसा सयानापन है कि तू अनेक प्रकार के रूप धरता हुआ भव-भ्रमण (कर रहा है)। सुप्रभ कहते हैं - (इसप्रकार भव-भव में) नाचते हुए क्या तू लजाता नहीं है (क्या तुझे लज्जा नहीं आती)?