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अपभ्रंश भारती 19
39. संपइ विलसहु जिण थुणहु, करहु निरंतर धंमु।
उत्तमकुले ‘सुप्पउ भणइ', दुल्लहु माणुस जंमु॥39॥
अर्थ - सुप्रभ कहते हैं (कि जो-जितनी) संपत्ति (प्राप्त है उस) का (उचित प्रकार) उपभोग कर, जिनेन्द्रदेव की स्तुति कर (और), निरन्तर धर्म कर (क्योंकि) उत्तम कुल में मनुष्य जन्म (पाना बहुत) दुर्लभ है।
40. जा थिर संपइ घरे वसइ, ता दिज्जहु रे भाइ।
वर-वंसह ‘सुप्पउ भणई', कहवन निच्चल ठाइं॥40॥ .
अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - जब तक घर में धन स्थिर है तब तक दान दो। रे भाई ! श्रेष्ठ/उत्तम वंशों की स्थिति भी किसी तरह स्थिर/निश्चल नहीं रहती (अर्थात् लक्ष्मी चंचल है)।