Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 136
________________ अपभ्रंश भारती 19 127 37. दय करि जीवहं पालि वय, करि दुत्थियहं परत्त। जिव-तिव-किव 'सुप्पउ भणई', अवसु मरेव्वउ मित्त॥37॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - हे मित्र ! जैसे (बन पड़े) वैसे (या) कैसे भी जीवों पर दया कर, व्रतों का पालन कर, विपत्तिग्रस्त लोगों की रक्षा कर ! (क्योंकि) मरना निश्चित है। 38. धणु दीणहं गुण सज्जणहं, मणु धम्महं जो देइ। तहं पुरिसहं 'सुप्पउ भणई', विहि दा सव्वु तु करेइ॥38॥ तह । अर्थ - (जो मनुष्य) दीनों/गरीबों को धन (का दान) देता है, सज्जनों की विनय/उपकार करता है, सदाचार/धर्म के प्रति अपना चित्त (मन) लगाता है, सुप्रभ कहते हैं - उन मनुष्यों के लिए दैव (भाग्य/नियति) निःसन्देह सब-कुछ करता है।

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