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अपभ्रंश भारती 19
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33. जसु कारणि संचियइ धणु, पाउ करेवि गहीरु।
तं पेछहु ‘सुप्पउ भणई', दिणे-दिणे खसइ सरीरु॥33॥
__अर्थ - (हे मनुष्य !) जिस देह के प्रयोजन से गंभीर/घोर पाप करके धन का संचय करता है, सुप्रभ कहते हैं - उस (देह) को देख ! वह (देह) दिन-दिन क्षीण हो रही है !
34. वंदाणाण' 'सुप्पउ भणई', धणु संचियइ त काई।
अणदितहं ‘सुप्पउ भणई', सपुरिस इउ हिययाइं॥34॥
अर्थ - हे चन्द्रमुखी ! (तेरे द्वारा यदि दान नहीं दिया जाता तो) धन क्यों संचित किया जाता है? सत्पुरुष भी (यदि) यहाँ दान न देता हुआ है तो वह (भी) विनष्ट होने वाला है।
1. B. चंदाणण, C. चंदाणाणि
यहाँ B प्रति के 'चंदाणण' (चन्द्र + आनन = चन्द्रमुखी) शब्द के आधार से अर्थ किया गया है।