Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 134
________________ अपभ्रंश भारती 19 125 33. जसु कारणि संचियइ धणु, पाउ करेवि गहीरु। तं पेछहु ‘सुप्पउ भणई', दिणे-दिणे खसइ सरीरु॥33॥ __अर्थ - (हे मनुष्य !) जिस देह के प्रयोजन से गंभीर/घोर पाप करके धन का संचय करता है, सुप्रभ कहते हैं - उस (देह) को देख ! वह (देह) दिन-दिन क्षीण हो रही है ! 34. वंदाणाण' 'सुप्पउ भणई', धणु संचियइ त काई। अणदितहं ‘सुप्पउ भणई', सपुरिस इउ हिययाइं॥34॥ अर्थ - हे चन्द्रमुखी ! (तेरे द्वारा यदि दान नहीं दिया जाता तो) धन क्यों संचित किया जाता है? सत्पुरुष भी (यदि) यहाँ दान न देता हुआ है तो वह (भी) विनष्ट होने वाला है। 1. B. चंदाणण, C. चंदाणाणि यहाँ B प्रति के 'चंदाणण' (चन्द्र + आनन = चन्द्रमुखी) शब्द के आधार से अर्थ किया गया है।

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