Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 133
________________ 124 अपभ्रंश भारती 19 31 परु हम्मइं धणु संचियइ, थिरु किजइ यरवासु'। सकुडंवउ ‘सुप्पउ भणई', जघि जिउ मरइ हयासु॥31.II ॥ अर्थ - (जिसके द्वारा) दूसरों का वध करके धन का संचय किया जाता है (और अपनी) गृहस्थी को स्थिर किया जाता है, सुप्रभ कहते हैं - (वह) जीव कुटुम्बसहित हताश-निराश होकर मरता है। 1. B-C. घरवासु 2. B. जइ यहाँ अर्थ में B प्रति के 'घरवासु' व 'जई' के आधार से अर्थ किया गया है। 32. अरि जिय गुण करि सज्जणहं, परिहरि एव विडंबु। ___कइ दिवसहं 'सुप्पउ भणई', तुव रोविहइ कुडंबु॥32॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - अरे जिय ! सज्जनों जैसा आचरण कर, मायाजाल का त्याग कर/छल-कपट छोड़ ! समझ ! तेरे लिए कुटुम्ब कितने दिन रोता है!

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