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अपभ्रंश भारती 19
31 परु हम्मइं धणु संचियइ, थिरु किजइ यरवासु'।
सकुडंवउ ‘सुप्पउ भणई', जघि जिउ मरइ हयासु॥31.II ॥
अर्थ - (जिसके द्वारा) दूसरों का वध करके धन का संचय किया जाता है (और अपनी) गृहस्थी को स्थिर किया जाता है, सुप्रभ कहते हैं - (वह) जीव कुटुम्बसहित हताश-निराश होकर मरता है।
1. B-C. घरवासु 2. B. जइ
यहाँ अर्थ में B प्रति के 'घरवासु' व 'जई' के आधार से अर्थ किया गया है।
32. अरि जिय गुण करि सज्जणहं, परिहरि एव विडंबु। ___कइ दिवसहं 'सुप्पउ भणई', तुव रोविहइ कुडंबु॥32॥
अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - अरे जिय ! सज्जनों जैसा आचरण कर, मायाजाल का त्याग कर/छल-कपट छोड़ ! समझ ! तेरे लिए कुटुम्ब कितने दिन रोता है!