Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 131
________________ 122 अपभ्रंश भारती 19 27. ते धणवंता मुया गणि, मा लेखहि जीवंत। जे कुप्पहि ‘सुप्पउ भणई', दाणहो पंथि न जंति॥28॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं कि वे धनवान जो दान के पथ पर नहीं जाते (उन्हें) मरे हुओं (मृत लोगों) की श्रेणी में गिन/रख। उन्हें जीवित (जीवनयुक्त) मत कह। 28. रे हियडा ‘सुप्पउ भणई', करि उवयारु परस्स। धणु-जोवणु बे दिवस णिरु, पुणु अवसरु हुइ कस्स॥29॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - रे मन ! दूसरों का उपकार कर। धनयौवन निश्चित ही दो दिन (अल्प अवधि) के हैं, फिर (परोपकार के लिए) कौनसा अवसर होगा!

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