Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 129
________________ 120 अपभ्रंश भारती 19 23. 'सुप्पय' वल्लह मरण-दिणे, जेम विरच्चइ चित्तु। सवावत्थहं तेम जइ, गउ णिव्वाणे पहुत्तु ।।24॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - प्रिय की मृत्यु के दिन मन जिस प्रकार उदास/विरक्त होता है यदि सब अवस्थाओं में उसी तरह (विरक्त/उदास) हो जावे तो (जीव) निर्वाण-गमन में समर्थ हो जावे। 24. जरु-जुवाणु जीविउ-मरणु, धणु-दलिद्दु कुडुंबु। रे हियडा ‘सुप्पा भणई', इहु संसारु विडंबु ॥25॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - हे मन ! यौवन-बुढ़ापा, जीवन-मरण, धनदरिद्रता (और) कुटुम्ब (ये सब विरोधी बातें इस संसार में एकसाथ देखी जाती हैं, सच) यह संसार एक मायाजाल है।

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