Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 127
________________ 118 19. सुक्किउ संचि म संचि धणु, जं पर हत्थहो होइ। 'सुप्पय' सुर-र-विसहरहं, सुक्किउ हरण ण कोइ ॥ 20 ॥ - सुप्रभ कहते हैं ( हे नर ! ) सुकृत अर्थात् पुण्य का संचय अर्थ कर, धन का संचय मत कर। (क्योंकि) धन दूसरे / पराये हाथ के लिए होता है ( अर्थात् धन का परस्पर लेन-देन / विनिमय होता है तथा धन को कोई हरण कर सकता है ) ( किन्तु ) सुकृत / पुण्य का हरण देवता - मनुष्य - नागेन्द्र कोई भी नहीं कर सकता। मूल प्रति में क्रमांक 19 दोहा नहीं है। अपभ्रंश भारती 19 - 20. धणु दिंतहं 'सुप्पउ भणई', कंतु म वारि मयछि । जज्जरि भंडड़ नीरु जिम, आउ गलंतउ पेछि ॥21॥ - अर्थ सुप्रभ कहते हैं हे मृगाक्षी (मृगनयनी ) ! अपने धन देते हुए ( दान देतेहुए) पति को मत रोक। जैसे जीर्ण बरतन में से पानी रिसता है, देख ! वैसे ही आयु भी गलती हुई / रिसती हुई / नष्ट होती हुई है। -

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