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अपभ्रंश भारती 19
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17. ‘सुप्पउ भणई' रि जीव सुणि, वंध व करहि परित्त।
पर-सिरि पेछिवि अण्णभवे, जिम न विसूरहि मित्त॥18॥
अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - रे जीव सुन ! कर्म-बंध को सीमित/हल्का कर जिससे अन्य/अगले भव में उत्तम लक्ष्मी (मोक्ष लक्ष्मी) को देखकर केवलमात्र खेद न करे।
18. जेण सहत्थें णिययधणु, सव्वावत्थु न दिति।
माय विहीणउ डिंभु जिम, ते झूरंति मरंति॥18॥
अर्थ - जिसके द्वारा अपने हाथ से अपना धन और सब वस्तुएँ नहीं दी जातीं वह (दानरहित - दान के अभाव में) मातृविहीन (अनाथ) बच्चे की भाँति क्षीण होताहुआ मरता है।