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अपभ्रंश भारती 19
45. खणे -खणे हरिस-विसाय-वसु, मंडिउ मोह - नडेण । घर पेरणु 'सुप्प भणई', घोर समाणु ण भंति ' ॥45 ॥
अर्थ सुप्रभ कहते हैं क्षण-क्षण में हर्ष - विषाद के अधीन / वशीभूत होकर मोहरूपी नट के द्वारा रचित खेल-तमाशे का घर ( यह संसार) (काल) क्षणभर में ही छीन लेता है।
पेरण = खेल-तमाशा
1. C. रे परिहरहिं खणेण
यहाँ अर्थ में 'C' प्रति के इस चतुर्थ चरण को आधार माना है।
46. ईसरु गव्वु म उव्वहि, सयलु परायउ जाणि । चलु जीविउ 'सुप्पउ भणई', पिउ वणु तुव अवसाणि ॥ 46 ॥
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अर्थ हे ऐश्वर्यशाली ! अहंकार मत धारणकर | सबको पराया जान।
( हे नर ! ) वन ही तुम्हारा
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जीवन चंचल (अस्थिर ) है । सुप्रभ कहते हैं अवसान-स्थल (विरामस्थल ) है ।
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