Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 138
________________ अपभ्रंश भारती 19 129 41. ता उज्जलु ता दिढ कढिणु, पुरिस-सरीरु सहेइ। जामण 'सुप्पय' गमण मण, जर डाइणि लग्गेइ॥41॥ अर्थ - (हे मनुष्य !) जब तक दृढ़-बलवान पुरुष-शरीर (मनुष्य पर्याय) शोभता है तब तक कठिन तप कर ले। सुप्रभ कहते हैं - (यह) समझ (चिन्तन कर और मान) कि जन्म-जरा (बुढ़ापा), गमन (मरण) रूपी डायन संग लगी हुई है। 42. मण चोरहो माया णिसिहे, जिय रक्खहि अप्पाणु। जिम होही ‘सुप्पा भणई', णिम्मल णाणु विहाणु॥42॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - हे जिय ! मायारूपी रात/अंधकार में मनरूपी चोर से (अपनी) आत्मा की रक्षा कर जिससे निर्मल (शुद्ध) ज्ञान का प्रभात (सवेरा, उजाला) हो।

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