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अपभ्रंश भारती 19
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41. ता उज्जलु ता दिढ कढिणु, पुरिस-सरीरु सहेइ।
जामण 'सुप्पय' गमण मण, जर डाइणि लग्गेइ॥41॥
अर्थ - (हे मनुष्य !) जब तक दृढ़-बलवान पुरुष-शरीर (मनुष्य पर्याय) शोभता है तब तक कठिन तप कर ले। सुप्रभ कहते हैं - (यह) समझ (चिन्तन कर और मान) कि जन्म-जरा (बुढ़ापा), गमन (मरण) रूपी डायन संग लगी हुई है।
42. मण चोरहो माया णिसिहे, जिय रक्खहि अप्पाणु।
जिम होही ‘सुप्पा भणई', णिम्मल णाणु विहाणु॥42॥
अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - हे जिय ! मायारूपी रात/अंधकार में मनरूपी चोर से (अपनी) आत्मा की रक्षा कर जिससे निर्मल (शुद्ध) ज्ञान का प्रभात (सवेरा, उजाला) हो।