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अपभ्रंश भारती 19
21. दिज्जइ धणु दुत्थिय - जणहं, सुद्धकरि णिय भाउ । चलु जीविउ 'सुप्प भणई', सुण्णउ दिवसु म जाउ ॥ 22 ॥
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अर्थ
अपने भावों को शुद्ध करके विपत्तिग्रस्तजनों के लिए धन दिया जाना चाहिये। सुप्रभ कहते हैं जीवन चंचल है (अतः सावधान रह कि ये ) दिन निष्फल न चले जायें।
22. 'सुप्पर भइ' रे दइ विलसि, डहि धणु संचिउ गाहु । लग्गइ कालि पलेंवणई, जं णिग्गइ तं लाहु ॥ 23 ॥
अर्थ सुप्रभ कहते हैं अरे ! (जो) भाग्य ( में है ) ( उसका ) उपभोग कर। गृहीत एवं संचित ( ग्रहण किया हुआ तथा संचय किया हुआ) धन को जला (अर्थात् समाप्त कर ) | ( देख ) काल (मृत्यु) की अग्नि (आग) लग रही है, जो (इसमें से) निकल जाता है उसको ही लाभ (होता) है।
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