Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 130
________________ अपभ्रंश भारती 19 ____121 121 25. हय गय रहवर पवर भडा, संपय पुत्त कलत्त। जम तुट्टइ ‘सुप्पउ भणई', को वि ण करइ परित्त॥26॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - (जब) मृत्यु आ पड़ती है (आ धमकती है) (तब) (अपने) घोड़े, हाथी, उत्तम रथ, श्रेष्ठ योद्धा, सम्पत्ति, पुत्र-स्त्री, कोई भी (जीव की) रक्षा नहीं करते। 26. जइ दिण दह ‘सुप्पउ भणई', घरु परियणु थिरु होइ। ता अवलंविवि तवयरणु, रण्णि कि णिवसइ कोइ॥27॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - यदि घर-परिजन (आदि) दस दिन' (की लम्बी अवधि तक) स्थिर होते तो कोई तप-आचरण (तपस्या) का सहारा/ आश्रय लेकर जंगल में क्यों रहता ! 1. लोक में प्रसिद्ध है कि 'जीवन चार दिन का है' अर्थात् बहुत कम/सीमित अवधि का है, इसी सन्दर्भ में यहाँ चार दिन के अनुपात में ‘दस दिन' का अर्थ बहुत ‘लम्बी अवधि' लिया गया है।

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