Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 124
________________ अपभ्रंश भारती 19 115 13. हियडा संवरु धाहडी, मुवउ कि यावइ कोइ। अप्पउ अजरामरु करिवि, पछहो अणहो रोइ॥13॥ अर्थ - हे मन ! हाहाकार के रुदन का संवरण कर (रुदन को रोक)। क्या कोई मरा हुआ वापस आया है? अपने को अजर-अमर कर अन्यथा बाद में रोयेगा। अणहा (अव्यय) = अन्यथा 14. किम किज्जइ ‘सुप्पइ भणई', पिय पर-यरिणि' धणासु। आउसि रासि हरंतु खलु, किम पेखहि जीवासु ॥14॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - हे प्रिय ! घर-घरिणि (स्त्री) और धन की आशा क्यों की जाती है? देख ! आयु की राशि हरण हो रही है (फिर भी) (दीर्घ) जीवन की आशा रखता है! 1. C. घरि-घरिणि। यहाँ अर्थ में 'c' प्रति के इस शब्द को आधार माना गया है। जीव + आस-जीवासु = जीवन की आशा

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