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19. सुक्किउ संचि म संचि धणु, जं पर हत्थहो होइ। 'सुप्पय' सुर-र-विसहरहं, सुक्किउ हरण ण कोइ ॥ 20 ॥
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सुप्रभ कहते हैं
( हे नर ! ) सुकृत अर्थात् पुण्य का संचय
अर्थ कर, धन का संचय मत कर। (क्योंकि) धन दूसरे / पराये हाथ के लिए होता है ( अर्थात् धन का परस्पर लेन-देन / विनिमय होता है तथा धन को कोई हरण कर सकता है ) ( किन्तु ) सुकृत / पुण्य का हरण देवता - मनुष्य - नागेन्द्र कोई भी नहीं कर सकता।
मूल प्रति में क्रमांक 19 दोहा नहीं है।
अपभ्रंश भारती 19
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20. धणु दिंतहं 'सुप्पउ भणई', कंतु म वारि मयछि । जज्जरि भंडड़ नीरु जिम, आउ गलंतउ पेछि ॥21॥
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अर्थ
सुप्रभ कहते हैं
हे मृगाक्षी (मृगनयनी ) ! अपने धन देते हुए ( दान देतेहुए) पति को मत रोक। जैसे जीर्ण बरतन में से पानी रिसता है, देख ! वैसे ही आयु भी गलती हुई / रिसती हुई / नष्ट होती हुई है।
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