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अपभ्रंश भारती 19
शरीर में चार अवयव अस्थिर हैं - काम, शुक्र, प्राण और मन। इनके स्थिरीकरण के बिना कोई भी साधना, साधना नहीं कही जा सकती। नाथ पंथ की साधना काम-प्राण की साधना है और मंत्रयानी बौद्धसिद्धों की बिन्दु-साधना। इनका लक्ष्य है - बोधिचित्त का समुत्पाद। शुक्र संवृतचित्त है उसे बोधिचित्त में परिणत करने के लिए शुक्र का शोधन कर उष्णीय चक्र में प्रतिष्ठित करना पड़ता है। एतदर्थ एकमात्र शून्यता और करुणा की मिलित युगनद्ध मूर्ति श्री सद्गुरु ही है। यही शिष्य में महासुख का विस्तार करता है।
यहाँ मूल विषय है सिद्धों और नाथों के साहित्य के सामाजिक सन्दर्भ, अतः ऊपर अत्यन्त संक्षेप में उनका सैद्धान्तिक स्वरूप स्पष्ट कर दिया गया है। चाहे बौद्धसिद्धों के चर्यापद या दोहे हों अथवा नाथसिद्धों की बानियाँ, सामाजिक संदर्भ इन्हीं से प्राप्त किए जा सकते हैं। उनके सिद्धान्त-निरूपक ग्रन्थों से इसका पता नहीं चल सकता। ‘गुह्य समाज तंत्र' या प्रज्ञोपाय विनिश्चय सिद्धि' से क्या मिलने वाला है? 'सिद्ध सिद्धान्त पद्धति' या 'घेरण्ड संहिता' से ही क्या उपलब्ध होगा? हाँ, इन सिद्धान्तपरक ग्रंथों से समाज में अध्यात्म के प्रति आस्था पैदा की जा सकती है।
सामान्यतः यह धारणा है कि ये सिद्ध बंगाल से जुड़े हैं, और निम्न वर्ग से आए हैं, पर ऐसा नहीं है। ये बंगाल, आसाम, उड़ीसा, बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और सुदूर दक्षिण कर्नाटक तक के हैं। इसी प्रकार इनमें से कई तो राजा और राजकुमार तक बताए गए हैं। शासित जनता में ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ, कोरी, शूद्र वर्ग से भी तंत्रयान में दीक्षित मिलते हैं। इनकी रचनाओं - चर्यापद और दूहे - में इस विविधता की झलक कम मिलती है, संभव है विक्रमशील या विक्रमशिला विश्वविद्यालय में प्रायः सबके प्रवेश और साधना की यथासंभव एकरूपता के कारण विविधता अप्रासंगिक हो गई हो। उक्त द्विविध रचनाओं में साधनाओं और तजन्य उपलब्धियों की ही चर्चा प्रस्तुत है। अभिव्यक्ति के लिए अप्रस्तुत रूप में सामाजिक जीवन के संदर्भ आ जाते हैं।
मानव वन्य-प्राणियों की तरह एकल रहकर जीवनयापन नहीं करता, वह जिस समुदाय का अंग बनकर रहना पसन्द करता है उसे समाज कहते हैं। कतिपय मानवेतर प्राणी भी झुण्ड में रहना पसन्द करते हैं पर उनका उद्देश्य मात्र आत्मरक्षा है। हमारी परम्परा में इस झुण्ड को 'समाज' कहा गया है। समाज केवल आत्मरक्षा के लिए नहीं बना है, उसमें रहकर मानव अपनी अपरिमेय संभावनाओं को चरितार्थ करता है। ये संभावनाएँ सामाजिक या सबको समान बनाए रखने के लिए भी हो सकती हैं और व्यक्तिगत स्तर पर आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए भी होती हैं। बौद्धसिद्ध हों या नाथसिद्ध - समाज की व्यवस्था से हटकर जब वे व्यक्तिगत स्तर पर आध्यात्मिक स्तर की उपलिब्धयों में अन्तर्मुखी होकर आत्मलीन हो जाते हैं और साधना तथा उसकी उपलब्धियों तक ही अपनी अभिव्यक्ति की सीमा बना लेते हैं तब सामाजिक संदर्भ का प्रसंग गौण हो जाता है,