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अपभ्रंश भारती 19
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ण हु एत्थ को वि जणो।
अंक-5, पृ. 127 एवं वि ओसधं लिम्पेहि किल।
अंक-5, पृ. 128 अहव अहं वि रोदामि।
अंक-5, पृ. 132 तदा वि महन्तेण आरम्भेण रोदिदु आरद्धो
अंक-5, पृ. 132 तह वि अणुस्सुओ रोदामि।
अंक-5, पृ. 132 केण वि संओओ जादो।
अंक-6, पृ. 142 किं वि चिन्तअन्ती अप्पसण्णा विअ उस्सुआ दीसइ
अंक 6, पृ. 143 एसा मम मादा वसुमित्ताए सह किं वि चिन्तेदि।
अंक-6, पृ. 144 11. ही ही (हर्ष द्योतक) - शौरसेनी प्राकृत में विदूषक के हर्षद्योतन के लिए ही ही अव्यय का प्रयोग होता है। अविमारकम् की प्राकृत में निम्नलिखित स्थलों पर इस अव्यय का प्रयोग द्रष्टव्य है - ही ही किं बहुणा, मए वि सह गोठिं णेच्छदि।
अंक-2, पृ. 26 ही ही एसो अत्तभवं कामुअजणवण्णएण अणुलित्तो विअ पण्डुभावेण इदो एव आअच्छदि।
अंक-2, पृ. 46 ऊपरलिखित उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि अविमारकम् में प्राकृत के अव्यय-प्रयोगों में अधिकांश स्थलों पर आचार्य हेमचन्द्र द्वारा निर्दिष्ट अव्ययों का ही प्रयोग हुआ है। परन्तु प्राकृत के इन अव्यय-प्रयोगों में कुछ उदाहरण ऐसे भी उपलब्ध होते हैं जिनका उल्लेख आचार्य हेमचन्द्र से लगभग 6 शताब्दी पूर्व24 वररुचि विरचित 'प्राकृतप्रकाश' में हुआ है। प्राकृत भाषा निरन्तर विस्तार को प्राप्त होती रही है। इसी कारण एतद् विषयक अनेक व्याकरण-ग्रन्थों की भी समयसमय पर रचना होती रही है। यही कारण है कि अविमारकम् में प्राकृत के अव्ययों में ऐसे भी प्रयोग उपलब्ध होते हैं जिनका उल्लेख चौदहवीं शती के लेखक त्रिविक्रम ने अपने ग्रन्थ 'प्राकृतव्याकरणवृत्ति' तथा सत्रहवीं शती के आचार्य मार्कण्डेय ने भी अपने ग्रन्थ 'प्राकृतसर्वस्व' में किया है। ऊपरलिखित प्रयोगों में अधिकांश अव्यय ऐसे हैं जिनका निर्देश हेमचन्द्राचार्य ने महाराष्ट्री प्राकृत के सन्दर्भ में किया है परन्तु णं तथा ही ही अव्यय ऐसे हैं जिनका उल्लेख शौरसेनी प्राकृत के सन्दर्भ में किया गया है।
अविमारकम्, रचयिता - महाकवि भास, व्याख्याकार - आचार्य रामचन्द्र मिश्र, प्रकाशक - चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1962