Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 119
________________ 110 अपभ्रंश भारती 19 3. 'सुप्पउ भणई' म परिहरहु, पर-उवयार चरित्तु । ससि - सूरहं उइ अत्थवणु, अण्णह कवणु थिरत्तु ॥3 ॥ अर्थ सुप्रभ कहते हैं ( हे सज्जन ! ) परोपकार के आचरण को मत छोड़। (देख,) सूर्य और चन्द्रमा दोनों अस्त होते हैं (अर्थात् इनका भी अवसान होता है) तब ( संसार में) अन्य कौन स्थिर है ? - 4. धणवंता 'सुप्पउ भणई' धणु दइ विलसि म भुल्लि । अज्जु जि दीसहि के वि णरा, मुआ तिसु महि कल्लि ॥ 4 ॥ अर्थ सुप्रभ कहते हैं हे धनवान ! (तुम) (भोग - ) विलास में मत भूले रहो । धन दो ( दान करो ) | ( देख!) आज पृथ्वी पर जो नर देखे जाते हैं (उनमें कितने ही (नर) कल मृत ( हो जायेंगे / मर जायेंगे ) ।

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