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अपभ्रंश भारती 19
जहिं पिक्कसालिछेत्ते घणेण जहिं कीलागिरिसिहरंतरेसु
कोमलदलवेल्लिहरंतरेसु। सिक्खंति पक्खि दरदावियाई विडमणियमम्मणुल्लावियाई। जहिं पिक्कसालिछेत्ते घणेण
छज्जइ महि णं उप्परियणेण। पंगुत्तें दीहें पीयलेण
णिवडंतरिंछपल्लवचलेण। जहिं संचरति बहुगोहणाई
जव कंगु मुग्ग ण हु पुणु तणाई। गोवालबाल जहिं रसु पियंति
थलसररुहसेज्जायलि सुयंति। मायंदकुसुममंजरि सुएण
हयचंचुएण कयमण्णुएण। जहिं समयल सोहइ वाहियालि वाहणपयहय वित्थरइ धूलि। हरि भामिज्जंति कसासणेहिं
अण्णाणिय णाई कुसासणेहिं। णिज्जति णाय कण्णारएहिं
णाय व्व णायकण्णारएहिं। रुज्झंति गयासा ईरिएहिं
सीस व्व गयासाईरिएहिं। आसयर दिति सिक्खावयाई
णं मुणिवर गुणसिक्खावयाई। कप्पूरविमीसु पवासिएहिं
जहिं पिज्जइ सलिलु पवासिएहिं। घत्ता - ससिपहपायारहिं गोउरदारहिं जिणवरभवणसहासहिं॥ मढदेउलहिं विहारहिं घरवित्थारहिं वेसावासविलासहिं॥14॥
महाकवि पुष्पदंत, महापुराण, 1.14 जहाँ क्रीड़ापर्वतों के शिखरों के भीतर कोमल दलवाले लतागृहों में पक्षीगण थोड़ाथोड़ा दिखना, और विटों के द्वारा मान्य काम की अव्यक्त ध्वनि करना सीख रहे हैं। जहाँ पके हुए धान्य के खेतों से भूमि ऐसी शोभित है मानो उसने उपरितन वस्त्र के प्रावरण (दुपट्टे) ' को ओढ़ रखा हो। जो (प्रावरण) लम्बा, पीला और गिरते हुए शुकों के पंखों के समान चंचल है। जहाँ अनेक गोधन जौ, कंगु और मूंग खाते हैं, फिर घास नहीं खाते। जहाँ गोपालबाल रस का पान करते हैं और गुलाब के फूलों की सेजपर सोते हैं। जहाँ क्रोध करने वाले शुक ने अपनी चोंच से आम्रकुसुम की मंजरी को आहत कर दिया है। जहाँ पर समतल राजमार्ग शोभित है। उस पर वाहनों के पैरों से आहत धूल फैल रही है। जहाँ सईसों के द्वारा घोड़े घुमाये जा रहे हैं, जैसे खोटे शासनों से अज्ञानीजनों को घुमाया जाता है। महावतों के द्वारा हाथी वश में किये जा रहे हैं, जैसे सपेरों के द्वारा साँप वश में किये जाते हैं। सवारों के द्वारा हाथी और घोड़े रोके जा रहे हैं, जैसे निराश आचार्यों द्वारा शिष्यों को रोक लिया जाता है। खच्चरों को शिक्षा शब्द कहे जा रहे हैं, मानो मुनिवर गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों को दे रहे हैं। जहाँ प्याउओं पर ठहरे हुए प्रवासियों के द्वारा कपूर से मिला हुआ पानी पिया जाता है।
घत्ता - जिनके परकोटे चन्द्रमा की प्रभा के समान हैं ऐसे, गोपुर द्वारवाले हजारों जिन-मंदिरों, मठों, देवकुलों, विहारों, गृह विस्तारों, वेश्याओं के आवासों और विलासों में से॥14॥
अनुवादक - डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन