________________
अपभ्रंश भारती 19
वांछाओं का/मनोकामनाओं का उल्लेख बहुत कम हुआ है। ऋषभदेव के जन्म के उपरान्त इन्द्र द्वारा उनके अभिषेक के बाद स्तुति की गई है उसमें उन्हें मनोरथ पूर्ण करनेवाला कहा गया है तथा उनसे याचना की गई है कि जन्म-जन्म में हमें गुणों की सम्पत्ति दें। लक्ष्मण द्वारा जब सुग्रीव को सीता की खोज करने का आदेश दिया जाता है तो सग्रीव कार्य-सिद्धि की कामना से जिनमन्दिर में जाकर जिनस्वामी की स्तुति करता है और स्तुति के बाद प्रतिज्ञा करता है कि यदि मैं सीतादेवी का वृतान्त न लाऊँ तो मेरी गति संन्यास की हो (अर्थात् मैं संन्यास ग्रहण करूँगा)।3
स्तुतिकाव्य में प्रायः आराध्य के सौन्दर्य-वर्णन की परम्परा मिलती है। पउमचरिउ में स्तुतियों के अन्तर्गत जिनदेव के शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन बहुत अधिक नहीं मिलता। मुनिसुव्रत स्वामी को सुन्दर मेघ, अलि, भ्रमर तथा केश के समान रंगवाला कहा गया है। ऋषभदेव को नमस्कार करते हुए उन्हें कमल के समान कोमल, मनोहर तथा कान्तियुक्त कहा गया है। इन्द्र की जिनेन्द्र के रूप पर आसक्ति के माध्यम से भी अप्रत्यक्ष रूप से उनके सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। कवि कहता है कि 'जिन' के रूप पर आसक्त इन्द्र के नेत्र तृप्ति नहीं पा रहे हैं। हिन्दू देवताओं की स्तुतियों में जिस प्रकार आराध्यदेव के जीवन-प्रसंगों तथा दुष्ट संहारक के रूप में किये गये कार्यों का उल्लेख होता है, वह भी पउमचरिउ की स्तुतियों में नहीं मिलता।
जैन धर्म में आत्मा का परिष्कार, आत्मा को शुद्ध-मुक्त करना सर्वोपरि मूल्य है। जैनधर्म आत्मवादी है और आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता एवं स्वावलम्बन ही इसका चरम लक्ष्य है जिसके लिए आत्मशोधन की प्रक्रिया आवश्यक है। संभवतः यही कारण है कि 'जिन' की स्तुतियों में उनके संसार से विरक्त, काम-क्रोध मोह को जीतनेवाले, केवलज्ञान से युक्त, जन्म-मरण से विवर्जित रूप का बखान बार-बार किया गया है। इनमें से कई विशेषण जैन धर्म के सिद्धान्तों के अनुरूप हैं, जैसे - पंच महाव्रतों को धारण करनेवाला, चार कषायों का नाश करनेवाला, छह प्रकार के जीव निकायों के प्रति शान्ति रखनेवाला, सातों नरकों को जीतनेवाला आदि-आदि। . जय खम दम तव वय णियम करण। जय कलि मल कोह कसाय हरण। जय काम कोह अरि दप्प दलण। जय जाइ जरा मरणन्ति हरण।40
तो कई विशेषण ऐसे भी हैं जो किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के आराध्यदेव के लिए आरोपित किये जा सकते हैं। जैसे -
त्रिभुवन के स्वामी (1.9.3), तीनों लोकों के परमेश्वर, त्रिभुवन के मनोरथ पूर्ण करनेवाला, देव-असुरों के द्वारा प्रदक्षिणा किया हुआ, विश्वगुरु'' आदि विशेषण 'जिन' को सर्वोच्च सत्ता के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। एक-दो स्थलों पर स्वयंभू ने 'जिन' को माता-पिता, गुरु, बहिन, भाई, मित्र, सहायक आदि सम्बोधनों से भी पुकारा है। देवेन्द्रकुमार जैन इसे स्वयंभू का भावातिरेक मानते हैं। 'जिन' को निरंजन, निरपेक्ष, सर्वज्ञ, परात्पर जैसे विशेषणों से भी सम्बोधित किया गया है जो निर्गुण ब्रह्म की परिकल्पना के सन्निकट है।