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अपभ्रंश भारती 19
अक्टूबर 2007-2008
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साधारण सिद्धसेनसूरि-रचित
'विलासवई-कहा'
(विलासवती कथा) - श्री वेदप्रकाश गर्ग
हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यों की पृष्ठभूमि का निर्माण प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं की साहित्यिक रचनाओं में हो गया था। यह परम्परा उसे रिक्थ रूप में उक्त भाषाओं की कृतियों से प्राप्त हुई, क्योंकि दोनों ही भाषाओं में इस प्रकार की रचनाएँ पहले ही लिखी जा चुकी थीं। वर्ण्यविषय, शैली, छंद तथा प्राकृत-अपभ्रंश काव्यों के प्रबंध-शिल्प के अनुरूप जो प्रेमाख्यानक काव्य रचे गए, उनका मूल-स्रोत उक्त काव्यसाहित्य ही है। अपभ्रंश में रचित प्रेमाख्यानक काव्यों की जो परम्परा मिलती है, वह भी प्राकृत के प्रेमाख्यानक काव्यों से विकसित हुई है।
जन-जीवन में प्रचलित रहनेवाली लोक-कथाओं को अपनाकर लिखे जानेवाले काव्य तत्कालीन साहित्य के विशिष्ट अंग रहे हैं। उस युग की प्रेमकाव्य परम्परा के अनुरूप ही लिखी जानेवाली अपभ्रंश की एक रचना 'विलासवई-कहा' (विलासवती कथा) है, जो विषयवस्तु, शैली एवं प्रबंध-रचना की दृष्टि से प्रेमाख्यानक काव्य-परंपरा की एक कड़ी विशेष है। प्रस्तुत लेख में अपभ्रंश के इसी प्रेमाख्यानक काव्य के संबंध में परिचयात्मक रूप से लिखा जा रहा है।
___ 'विलासवई-कहा' (विलासवती कथा) नामक इस कथा-काव्य का सर्वप्रथम परिचय पं. बेचरदासजी दोशी ने 'भारतीय विद्या पत्रिका' में दिया था। तदनन्तर सन् 1956 में डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने 'हिन्दी महाकाव्य का स्वरूप-विकास' नामक अपने शोध-प्रबंध में इसका