Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 33
________________ अपभ्रंश भारती 19 दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है। स्वयम्भू से पूर्व आचार्य रविषेण संस्कृत में पद्मपुराण की तथा विमलसूरि प्राकृत में पउमचरिय की रचना कर चुके थे। लोकभाषा अपभ्रंश में इसकी पूर्ति स्वयम्भू ने की। यद्यपि स्वयम्भू ने काव्य-रचना का उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति माना है, परन्तु विद्वानों ने रामकथा के माध्यम से जिनभक्ति का प्रचार एवं जैन दर्शन की सार्थकता सिद्ध करना भी स्वयम्भू का लक्ष्य कहा है। अन्य जैन रचनाओं की तरह पउमचरिउ भी धार्मिक भावना से अनुरंजित है तथा इसके सभी प्रधान पात्र जिनभक्त हैं। संसार की अनित्यता, जीवन की क्षणभंगुरता और दुःख-बहलता दिखाकर विराग उत्पन्न करके शान्त रस में काव्य तथा जीवन का पर्यवसान ही इन कवियों का मूल प्रयोजन रहा है। परन्तु जैसा कि डॉ. रामसिंह तोमर लिखते हैं, धर्म और साहित्य का अद्भुत सम्मिश्रण जैन साहित्य में मिलता है। जिस समय जैन कवि काव्य रस की ओर झुकता है तो उसकी कृति सरस काव्य का रूप धारण कर लेती है और जब धर्मोपदेश का प्रसंग आता है तो वह पद्यबद्ध धर्म-उपदेशात्मक कृति बन जाती है।' जैन धर्म के पूज्य पुरुषों में 'जिन' का सर्वोच्च स्थान माना जाता है, यद्यपि उन्हें जगतसृष्टा नहीं माना जाता परन्तु कठोर साधना द्वारा कर्मफल तथा कषायों को नष्ट करके अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान तथा आत्मस्वरूप को प्राप्त करने के कारण जैन भक्तों ने 'जिन' के लिए उन सभी विशेषणों का प्रयोग किया है जो वेद-पुराणों में सामान्यतः ईश्वर के लिए प्रयुक्त होते हैं। 'जिन' की भक्ति जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग है। 'जिन' को 'जिनेन्द्र', 'तीर्थंकर', 'स्वयम्भू', 'अर्हत्' आदि नामों से पुकारा गया है। साधना द्वारा कर्ममल को नष्ट करने के कारण इन्हें 'जिन' कहा जाता है।" संयम धारण करने से वे पूज्य माने जाते हैं। अतः जो देवी-देवता संयमरहित हैं. उन्हें जैन धर्म में पूज्य नहीं माना जाता। संसार से विरक्त देव, गुरु, धर्म, आगम आदि पूज्य माने जाते हैं तथा उन्हें आराधना-अर्चना करने योग्य माना जाता है।12 जैन परम्परा में सर्वोच्च स्थान 'जिनेन्द्र' का है। कवि स्वयम्भू कृत पउमचरिउ में जितनी भी स्तुतियाँ आई हैं वे सब जिनेन्द्र के प्रति अभिव्यक्त हैं। जैन परम्परा में राम सर्वोच्च शक्ति नहीं हैं। राम के चरित्र और शक्ति पर वहाँ शंकाएँ प्रकट की गई हैं - जइ रामहो तिहुअणु उवरे माइ। तो रावणु कहि तिय लेइ जाइ॥" अर्थात् यदि राम के उदर में त्रिभुवन समा जाता है तो रावण उनकी पत्नी का अपहरण कर कहाँ ले जाता है? राम यहाँ एक सामान्य मानव के रूप में हैं, न वे देवकोटि में हैं और न ही महान आदर्श। स्वयम्भू ने अन्य देवी-देवताओं को जिनेन्द्र की वन्दना करते हुए दिखाया है। इनमें हिन्दू पौराणिक देवी-देवता भी हैं तथा नाग, नर, किन्नर आदि भी। अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों में भी संस्कृत तथा प्राकृत के प्रबन्धकाव्यों की ही तरह मंगलाचरण, गुरुवन्दना, सज्जन-दुर्जन स्मरण, आत्मनिन्दा आदि प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। पउमचरिउ का प्रारंभ ऋषभदेव की वंदना से होता है। दो पंक्तियों में की गई इस वन्दना को मंगलाचरण कहा जा सकता है -

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