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अपभ्रंश भारती 19
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कौशल से निर्मित, छहों जीव निकायों को जीव-दया की भाँति अभय प्रदान करनेवाली, लता की तरह अभिनव कोमल रंगवाली, पावस शोभा की तरह पयोधरों को धारण करनेवाली, धरती की तरह सब कुछ सहनेवाली और अडिग, विद्युत् की तरह कान्ति से उज्वल, समुद्र-वेला की भाँति सब ओर लावण्य से भरपूर, शुभ्र कीर्ति की तरह निर्मल
और त्रिलोक-स्थित शोभा के रूप में - अपनी उपस्थिति से काव्य को एक नयी भंगिमा से मढ़ती है।
सन्ध्यासौन्दर्य की अभिव्यंजना हेतु कवि वीभत्स उपमान के प्रयोग में अलं नहीं करता -
जाइ सञ्झ आरत्त पदीसिय। णं गय-घड सिन्दूर - विहूसिय। सूर-मंस रुहिरालि-चच्चिय। णिसियरि व्व आणन्दु पणच्चिय।23.9। राम-रावण सेना के परस्पर टकराने को कवि व्याकरणिक उपमानों में बाँधता
है
वायरणु जेम जं पुज्जणीउ। वायरणु जेम स विसज्जणीउ । वायरणु जेम आयम-णिहाणु। वायरणु जेम आएस-थाणु । वायरणु जेम अत्थुव्वहन्तु । वायरणु जेम गुण-विद्धि देन्तु । वायरणु जेम विग्गह-समाणु। वायरणु जेम सन्धिज्जमाणु । वायरणु जेम अव्वय णिवाउ। वायरणु जेम किरिया सहाउ। वायरणु जेम परलोय-करणु। वायरणु जेम गण लिंग-सरणु ।58.91
विराधित के इस सन्देश में राज्य की तुलना के लिए व्याकरण के अंग - विसर्ग, वर्णागम, विग्रह, सन्धि, अव्यय, निपात, गुण, क्रिया, गण आदि उपमान रूप में प्रयुक्त हुए हैं।
रूपक सृष्टि - ऋतुसौन्दर्य-वर्णन-प्रसंग में स्वयंभू केवल वर्णनात्मकता का सहारा नहीं लेते प्रत्युत् उपमान-प्रयोगों से रूपक-सृष्टि कर मानस-बिम्ब का गठन करते हैं। रूपकों की छटा इस प्रसंग में दर्शनीय है - कमलों के वासगृह में शब्दरूप नूपुरों से प्रविष्ट मधुकरीरूपी अन्तःपुर, कोयलरूपी कामिनी, शुकरूपी सामन्त, कुसुम- मंजरिरूपी ध्वजाएँ, वानररूपी माली से सजे वसन्त के श्रीगृह में वसन्त का प्रवेश होता है। नर्मदारूपी बाला प्रिय से अनुरक्त होकर झूमने लगती है व शृंगार करती है -
सररुह-वासहर हिँ रव-णेउरु। आवासिउ महुअरि-अन्तेउरु। कोइल-कामिणीउ उज्जाणेहिँ। सुय-सामन्त लयाहर-थाणे हिँ।