________________
अपभ्रंश भारती 19
अक्टूबर 2007-2008
'पउमचरिउ' में काव्य-सौन्दर्य-सृष्टि : कवि-दृष्टि
एवं प्रयोग
- डॉ. मधुबाला नयाल
णमह नव कमल कोमल मणहर वर वहल कन्ति सोहिल्लं उसहस्स पाय कमलं स सुरासुर वन्दियं सिरसा दीहर-समास णालं सद्द दलं अत्थ के सरुग्घवियं वुह महुयर पीय रसं सयम्भु कव्वुप्पलं जयउ ।'
आदि भट्टारक ऋषभ भगवान के चरण-कमल की वन्दना एवं काव्य के जयशील होने की कामना के साथ आरंभ चरितकाव्य ‘पउमचरिउ' स्वयंभू की उत्कृष्ट सर्जना है। अपने युगीन प्रभाव के कारण स्वयंभू मन-वचन और काया की कर्म की दिशा में प्रवृत्ति का कारण जीव/मनुष्य के विचारों को मानते हैं। तत्कालीन धर्मसाधना से अनुप्राणित होने के कारण काम और क्रोध उनके लिए चित्त की वृत्ति नहीं - पाप हैं और इन पापों से तरने के लिए 'जिन-भक्ति' की शरण आवश्यक है।
‘कवित-विवेक एक नहीं मोरे' - कवि तुलसी की उक्त पंक्तियों के लेखन से पूर्व ही स्वयंभू -
मइँ सरिसउ अण्णु णाहिं कुक इ। वायरणु कयावि ण जाणियउ। णउ वित्ति-सुत्तु वक्खाणियउ।
पचमू