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[ उत्तरार्धम् ]
कर्ष का परिमाण । कोलद्वयं च कर्षः स्यात् स प्रोक्तः पाणिमानिका । अत्तपिचुः पाणितलं किंचित् पाणिश्च तिन्दुकम् ॥२०॥ विडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता।
करमध्यं हंसपदं सुवर्णकवलग्रहम् । ___ उदुंबरं च पर्यायैः कर्ष एव निगद्यते ॥ २१ ॥
अर्थ-दो कोल का का एक 'कर्ष' होता है, उसको 'पाणिमानिका', 'अक्षपिचु', 'पाणितल', 'किंचित्पाणि', 'तिंदुक', 'विडालपदक', पोडशिका', 'करमध्य', 'हंसपदक', 'सुवर्ण', 'कवल' और 'उदुयर' भी कहते हैं अर्थात् यह १३ नाम उसी कर्ष के हैं । अक्ष नाम बहेड़े का है, उसके बराबर होने से इसे कर्ष को अत कहते हैं । तेंदु के फल समान होने से उसकी तेंदुक संशा है । हथेली भरकी पाणितल संशा है । तीन अंगुली करके ग्राह्य है, अतएव इसकी विडालपद संज्ञा है । सोलह मासे का होता है, इस कारण इसकी पोडशिका संज्ञा होती है और गूलर के समान होने से इस कर्ष की उदुवर संशा श्राचार्यों ने की है। इसी प्रकार जितनी संज्ञा इस परिभाषा में है, वे सब सार्थक है। आजकल व्यवहार में उस कर्ष को 'तोला' कहते हैं। सोने, चांदी, हीरा, मोती आदि बह मूल्य चीजें इससे तोली जाती हैं, इसलिये; अथवा मन, सेर, छटांक आदि तोलने के बांट इसी के आधार से बनाये जाते हैं, इसलिये भी इसको तोला' कहते हैं।
अर्द्ध पल और पल का परिमाण । स्यात् कर्षाभ्यामर्द्ध पलं शुक्तिरष्टमिका सथा। शुक्तिभ्यां च पलं शेयं मुष्टिरानं चतुर्थिका ।
प्रकुचः षोडशी विरूपं पलमेवात्र कीत्यते ॥२२॥ अर्थ-दो कर्ष का एक 'श्रीपल' होता है, उसी को शुक्ति-सीप और 'अष्टमिका' कहते हैं। दो शक्ति का पल होता है। उसको 'मुष्टि', 'श्राम्र', 'श्राम्रफल', 'चतुर्थिका', 'प्रकुञ्च', 'षोडशी' और 'बिल्व' भी कहते हैं ।
प्रस्मृति से मानिका पर्यन्त को परिमाण । पलाभ्यां प्रसूतिज्ञेया अमृतश्च निगद्यते । प्रमृतिभ्यामञ्जलिः स्यात् कुडवो अर्द्धशरावकः ॥२३॥
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