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[ उत्तरार्धम् ] यही विभाग निष्पन्न प्रमाण है और (से तं दवप्पमाणे) यही द्रव्य प्रमाण का विवरण है अर्थात् पांच विध से विभागनिष्पन्न द्रव्य प्रमाण का समर्थन किया गया।
भावार्थ-प्रतिमान प्रमाण उसे कहते हैं जिसके द्वारा सुवर्णादि पदार्थों का मान किया जाता है। जैसे कि-गुजा १, कांगणी २, निष्पाव ३,कर्ममाषक ४, मंडलक ५,सुवर्ण ६ । इनका प्रमाण निम्न प्रकार से है-पांच गुजा का कर्ममाषक होता है तथा चार कांगणी का भी कर्ममाषक होता है तथा तीनों प्रमाणों से गृहीत वक्ता की इच्छानुसार चतुर्थ संशक कर्म माषक है तथा चार कांकणी प्रमाण जो कर्ममाषक वर्णन किया गया है उन द्वादश कर्ममाषकों का एक मण्डलक होता है अड़तालीस कांकणियों को एक मंडल होता है और षोडश कर्म माषको का एक सुवर्ण ( सोनइया ) होता है अथवा चौसठ कांकणियों का एक सुवर्ण होता है। इस प्रमाण के कथन करने का मुख्य प्रयोजन सुवर्ण १, रजत २, ताम्र ३ मणि ४, मोती ५, संख ६ आदि पदार्थों के मान करने का ही है इसे प्रतिमान प्रमाण कहते हैं। इसे ही विभागनिष्पन्न प्रमाण कहते हैं * ।
नोट:-किन्तु यह प्रमाण मगध देश के अनुसार कहा गया है । इरा लिये चरक, सुश्रत, बाग्म',
भावप्रकाश श्रादि के अनुसार मगधदेश का मान जो शाङ्ग धर ने प्रहण किया है उसको भी हम यहां पर उद्ध त करते हैं । यथा:
औषधों के मान की परिभाषा। न मानेन विना युक्तिव्याणां ज्ञायते कचित् ।
अतः प्रयोगकार्यार्थ मानमत्रोच्यते मया ॥ १४ ॥ अर्थ-मान परिमाण के विना औषधों की युक्ति-कर्तव्य विधि कहीं नहीं होती । अतएव औषध बनाने के लिये मान-तोलने श्रादि की विधि इस संहिता में कही जाती है:
त्रसरेणु का परिमाण । त्रसरेणुर्बुधैः प्रोक्तस्त्रिंशता परमाणुभिः ।
त्रसरेणस्तु पर्यायनाम्ना वंशी निगद्यते ॥ १५ ॥ अर्थ-तीस परमाणुओं का 'त्रसरेणु' होता है और उसी को 'वंशी' भी कहते हैं । अन्यत्र भी कहा गया है कि-'जालान्तर्गतैः सूर्यकरवंशी विलोक्यते' अर्थात् जाली झरोखों में जो सूर्य की किरणों में रज उड़ती हुई दीखती हैं उसको वंशी कहते हैं । वे नेत्रों करके नहीं जाने जाते ।
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