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कूर्मदेशेऽर्जुनपुरे तत्रावासः कृतो यतः । गुरुर्जीवाभिधानश्च गच्छे चागमसंज्ञिते ।। तस्य पीताम्बरः शिष्यः तत्पादाम्बुजककरः । देवगुरुप्रसादेन विश्राम ग्रन्थकारकः ॥ व्याधिनिग्रह ५१२-५१४
इस प्रकार के ग्रन्थ निर्देश में - संवदष्टादशे वर्षे और संवदष्टादशे चाब्दे इन दो समानार्थक वाक्याशों के अनन्तर सागरानेत्र चाधिके और अंकाग्निवर्ष संयुते इन वाक्याशोंका अर्थ सागर ( ७-४) नेत्र ( २ - ३ ) अंक ( ९ ) अग्नि ( ३ ) इस प्रकारके संख्या के सांकेतिक अर्थ और अंकानाम् वामतो गतिः इस नियम के अनुसार १८२४, १८२७, १८३४, १८३७, १८३९, १८४२, १८४३, १८७२, १८७३, १८९३, इस प्रकारके दशविध विकल्प प्राप्त होते हैं।
व्याधिनि पह
अ चेला मोतीचंदजी महादजी चांपसी पठनार्थ श्री मांडवी बिदरे सं १८७२ चैत्र शुदी ५ गुरी लिपी कृतम् ।
शिवजी मालजी शिष्यार्थं पठन हेतवे सं १८७३ मा वर्षे महाविद १४ शुक्रे ।
अनुपानम जरी
(ग) संवत् १८६१ वर्षे आषाढ शुद्ध ५ गुरी । गुरुजी श्री पू लालजी चेला मूलजी पठनार्थ लेखकपाठकयोः शुभं भूयात् ।
उपरोक्त विवरण से यह सिद्ध होता है कि अनुपानमंजरी और व्याधिनिग्रह नामक दोनों ग्रन्थ विविध शिष्योंके पठनार्थं संवत् १८६१, १८७२, १८७३, इन वर्षोंमें अनुलेखन किये गए । इस अनुलेखन किये हुए और पठन योग्य स्थितिमें प्राप्त ये दोनों ग्रन्थ इस अनुलेखन कालके पर्याप्त पूर्व में
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