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ग्रन्थमें इनका उल्लेख न होनेसे यह विशेष विचारणीय है ।
इन विषोंसे शाहगंधर और भावप्रकाशके अनन्तर आचार्यश्री विश्रामजीके काल पर्यन्त जन सामान्यका पूर्णतः परिचित हो जाना संभवित है। इसी कारणसे विषलक्षणके भी प्रचुर प्रसंग प्राप्त होते होंगे जिसको चिकित्सा यहां प्रदर्शित की गई है ।
दन्तीबीजका प्रयोग यूनानी सम्पर्कके अनन्सर होने लगा है। प्राचीन कालमें दन्तीमलका उल्लेख प्राप्त होता है। उच्च टाका भी विषरूपमें प्रयोग दिया गया है। यह भावप्रकाशमें उपविषोंमें निर्दिष्ट गुंजाका वाचक प्रतीत होता है।
इन स्थावर विषोंके वर्णन प्रसंग में 'लूक' नामक रोग का उल्लेख है । यह सूर्यतापसे उत्पन्न दुष्ट वातसे उत्पन्न होता है ऐसा स्पष्ट निर्देश देकर इसको स्थावर विषके प्रकरणमें दिया है । इससे यह प्रतीत होता है कि विषप्रयोगसे उत्पन्न दाह, सन्ताप तृषा, शैत्य आदि लक्षणों के साम्यसे अप्रासंगिक होनेपर भी प्रसंगवंश सदृश चिकित्सा योग्य होनेसे इस लूक रोक्का भी यहां समाविष्ट होना उचित माना गया है । लूक शब्द गुजराती हिन्दी आदि भाषामें गर्म रूक्ष वायुके लिए तथा तज्जन्य विकारोंके लिए भी प्रचलित लू शब्द का ही संस्कृतीकरण प्रतीत होता है ।
चतुर्थ समुद्देश
इस ग्रन्थ के चतुर्थ समुद्देशमें जंगम विषोंमें सर्प, वृश्चिक, कुक्कुर, छछंदर, आलु, जलौका आदि विषले प्राणियोंका निर्देश है । इसके साथ श्वेत
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