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इस प्रकार देश, काल और वयको देखकर रोगानुसारी औषधका योग्य अनुपान और पथ्यके निर्देश करना चाहिए ॥३७॥ ८७ ग्रन्थकर्तुः परिचयः
संवदष्टादशे वर्षे सागरा नेत्रे चाधिके । चौत्रे सिते च पंचम्यां गुरौ वारे च ग्रन्थकृत् ॥३८॥
कूर्मदेशेऽर्जुनपुरे तत्र वासी सदा किल । ... गुरुजीवाभिधानश्च गच्छे चागमसंज्ञिके ॥३९॥
तस्य पीताम्बरः शिष्यः तत्पादवन्दकः सदा देवगुरुप्रसादेन विश्रामो ग्रन्थकारकः ॥४०॥
संवत् १८४२- ४३ के चैत्र शुक्ला पंचमी और गुरुवारके दिन यह ग्रन्थलेखन समाप्त हुआ ।
आगम संज्ञक गच्छके अनुयायी जीव (जीवा) नामक गुरुके पीताम्बर नामक शिष्य थे । इन पीताम्बर गुरुके चरणमें वन्दना करने वाला विश्रामजी नामक शिष्यने देव तथा गुरुके प्रसादसे इस ग्रन्थकी रचना की है । ग्रन्थकार विश्रामजी कर्मदेश-कच्छके अर्जुनपुर- अंजार नामक ग्रामके निवासी हैं ॥३८-४०॥
अनुपानमञ्जर्या धातु-उपधातुमारण-रोगानुपाननामकः
इति श्री पंचमः समुद्देश:
इति अनुपानमंजरी समाप्ता
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