Book Title: Anupan Manjari
Author(s): Vishram Acharya
Publisher: Gujarat Aayurved University
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यश्री विश्राम रचित अनुपानमंजरी अजगत आयुर्वेद आयुर्वट यविवर्मिटी साहित्य संशोधन विभागीय प्रकाशन गुजरात आयुर्वेद युनिवर्सिटी, जामनगर. For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुजरात आयुर्वेद युनिवर्सिटी, जामनगर द्वितीय दीक्षान्त समारोह सुअवसर पर प्रसारित For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यश्री विश्राम रचित अनुपानमंजरी "युर्वेद यूनिवर्सिटी साहित्य संशोधन विभागीय प्रकाशन गुजरात आयुर्वेद युनिवर्सिटी, जामनगर. For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar प्रकाशक अ. ह. म्हेता कार्यवाहक कुलसचिव गुजरात आयुर्वेद युनिवर्सिटी, जामनगर. मुद्रक ल. घे. सारडा प्रेस मेनेजर आयुर्वेद मुद्रणालय, जामनगर. For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन पुरातन साहित्य का उद्धार तथा नवीन साहित्यके निर्माणको प्रोत्साहन देकर वाङ्मयकी वृद्धि करना, उसके प्रकाशन प्रसारण द्वारा जिज्ञासु लोग तथा जनसमुदाय में ज्ञान विधामाकी तृप्ति के साधन उपलब्ध कराना युनिवर्सिटीयों का कर्तव्य है। तदनुमार आयुर्वेद के लुप्त तथा अविकसित अंगोको पुष्टि करनेवाले प्राचीन साहित्य का प्रकाशन करनेका कार्यक्रम आयुर्वेद युनिवर्सिटी स्वीकृत किया है। इस के प्रथम पुण्य के रूपमें गुजरात के ही एक लेखक की छोटी सी कृति “ अनुपानमंजरी" का प्रकाशन हो रहा है यह हर्ष की बात है। आशा है विद्वद्गण इस प्रथम पुष्पका स्वागत करेंगे तथा इस कार्य को गुणवत्तर बनाने के अपने सुझाव देकर भावि कार्य के लिए पथ प्रदर्शन करेंगे । जन्माष्टमी दिनांक : १-९-७२ जामनगर. वि. ज, ठाकर कायं वाहक कुलपति गुजरात आयुर्वेद युनिवर्सिटी जामनगर For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रास्ताविक आयुर्वेद के प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकोंमें गुजरात प्रान्तके विशिष्ट विज्ञानकी विशिष्ट कृतिके रूपमें सन १९३९ में गोंडल रसशाला औषध आश्रम के अध्यक्ष माननीय शास्त्री जीवराम कालीदासजी ने व्याधिनिग्रह नामक पुस्तक प्रकाशित की। इस पुस्तकके लेखक आचार्य श्री विश्रामजी कच्छ प्रदेशके अंजार नामक नगरके निवासी थे । जामनगरमें तत्कालीन स्थापित संस्था श्री गुलाबकुवरबा आयुर्वेद सोमायटीने प्रधान रूपसे चरकसहिता के प्रकाशनको मुख्य लक्ष्य बनाया था परंतु व्याधिनिग्रहके प्रकाशन के अनन्तर सोसायटी के ग्रन्थागारमें विद्यमान अनुपानमंजरी नामक आचार्यश्री विश्रामीकी कृतिको प्रकाशित करने के विचारसे श्री गुलाबकुवरबा आयुर्वेद सोसायटी जामनगरके तत्कालीन प्रमुख कार्यकर्ता श्री डॉ. प्राणजोवनदास महेता के आदेश से हस्तलिखित दो प्रतियों को आधार बनाकर अनुलेखन किया गया। इस प्रकार श्री गुलाबकुंवरबा आयुर्वेद सोसायटी के ग्रन्थागारमें अनुपानमंजरीकी एक मूल हस्त प्रति, एक प्राचीन गुजराती अनुवाद सहित हस्तप्रति और दो अनुलेखन की गई हस्त प्रति इस प्रकार से चार हस्त प्रतियोंका संग्रह हो गया । सन १९६७ में जामनगरमें श्री गुजरात आयुर्वेद युनिवर्सिटी की स्थापनाके समनन्तर आयुर्वेदके प्राचीन पुस्तकों के प्रकाशनको भी युनिवर्सिटीके For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्दिष्ट कार्योंमें समाविष्ट किया गया। गुजरात राज्यके तत्कालीन आरोग्य मंत्री श्री मोहनभाई व्यासजीके सत्प्रयत्नोंसे गोंडल रसशाला औषध आश्रमके प्रथम स्थापक और वर्तमान भुवनेश्वरी पीठ के आचार्य श्री चरणतीर्थजी महाराजके अनुग्रहसे उनका प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंका भंडार गुजरात आयुर्वेद युनिवर्सिटी जामनगरको प्राप्त हुआ । ... इस प्रकार गुजरात आयुर्वेद युनिवर्सिटीको श्री गुलाबकुंवरथा आयुर्वेद सोसायटी और गुजरात सरकार द्वारा प्राप्त गोंडलके हस्तलिखित ग्रन्थोंका भंडार उचित उपयोगके लिए प्राप्त हुआ । पूर्वसे ही जामनगरमें संचालित आई. एस. आर. नामक आयुर्वेद संस्थासमूह गुजरात आयुर्वेद युनिवर्सिटी जामनगरके अधीन कर दिया गया । सन १९६९में युनिवर्सिटीके कार्योदेश्यके अनुसार आयुर्वेद के अष्टांगों के समुद्धार तथा नवीन साहित्य निर्माण के हेतु तत्कालीन कुलपति श्री मोहनलालजी व्यास के सत्प्रयत्नोंसे 'साहित्य संशोधन विभाग' की स्थापना की गई । इस विभागमें संस्कृत भाषामें लिखित हस्तप्रतियोंका सूची निर्माण और प्रत्येक हस्तप्रतिका विशिष्ट विवरण प्राप्त करनेके लिए एक आयोजन किया गया । इस योजनाके अनुसार युनि. ग्रन्थागार में उपलब्ध हस्तप्रतियों की विवरणात्मक सूची तैयार की गई । For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org III Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस विभाग ने पूर्व वर्णित श्री गुलाबकु वरचा आयुर्वेद सोसायटी द्वारा सन १९४३के आसपास स्वीकृत और अनिवार्य कारणोंसे स्थगित श्री अनुपानमांजरी नामक पुस्तक के कार्य को प्रारंभ किया । इस विभाग के प्रथम अध्यक्ष श्री बह्मदत्त शर्माजी के मतानुसार भी यह अनुपानमंजरी नामक ग्रन्थ अष्टांग आयुर्वेदर्भे लुप्तप्रायः विष चिकित्सा और अनुपान सम्बन्धी नवीन ग्रन्थके रूपमें प्रकाशन योग्य माना गया । इस अनुपानमंजरीकी इस विभागको प्राप्त छ हस्त प्रतियोंको लेकर कार्य प्रारंभ करनेके पूर्व दूसरे विद्यासंस्थानों और विभिन्न पुस्तकालयोंसे इस पुस्तक के विषयमें अधिक विवरण और शक्य होने पर अधिक हस्तप्रति प्राप्त करनेके प्रयत्न प्रारंभ किये गये । इस योजना के अनुसार सहायक संशोधक श्री दत्तात्रेय वासुदेव पण्डितरावजीने विस्तृत पत्रव्यवहार किया । इस पत्रव्यवहारके परिणाम स्वरूप sfuser आफिस लायब्रेरी लंदनसे एक जीरोक्स कोपी प्राप्त की गई। इसके हमने इस प्रकाशनमेज पुस्तक के रूप में स्वीकृत किया है । इस प्रकार इस विभाग के पास श्री गुलाब कुंवरबा आयुर्वेद सोसायटी द्वारा प्राप्त दो मूल हस्तप्रति और दो अनुलेखन की गई हस्त For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org IV Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रति प्राप्त हुई । गुजरात सरकारके द्वारा गोंडल संग्रहकी दो हस्तप्रति भी प्राप्त हुई इस प्रकार छ हस्तप्रतियों के उपरांत एक जीरोक्स प्रति प्राप्त हुई । इन सात प्रतियों को लेकर ही प्रकाशन सम्बन्धी कार्यका प्रारंभ किया गया । श्री ब्रह्मदत्त शर्माजीके स्थानान्तरके अनन्तर श्री ज्ञानभास्कर पाण्डेयजी इस विभाग के अध्यक्ष हुए । इनके प्रयत्नसे इस विभागका afra विस्तृत करने हेतु एक दार्शनिक श्री गिरीशचन्द्र दीक्षित, एक भाषाशास्त्री श्री प्रभुलाल याज्ञिक और एक सहायक संशोधक श्रीमती सविता बहन गौर एम. ए. पी. एच. डी. को नियुक्त किया गया । श्री ज्ञानभास्कर पाण्डेयजी के निर्देशानुसार अनुपानमंजरी का अनुलेखन और प्रति संस्करण का कार्य प्रारंभ किया गया । इस कार्य के उपरांत (१) आयुर्वेद में उपमा (२) उपनिषद् आदिमें आयुर्वेद (३) महाभारत में आयुर्वेद आदि तीन ग्रन्थों के सामग्रीसंग्रह तथा लेखन के कार्य की भी एक विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की गई । इस योजना के अनुसार इन तीन ग्रन्थों का कार्य भी प्रगति कर रहा है । श्री दत्तात्रेय वासुदेव पण्डितरावजी के स्थानान्तरणसे उनके स्थान पर श्री हरिवल्लभ चन्दुलाल ठाकर, एम. एस. ए. एम. को नियुक्त किया गया । इन्हों ने ज्योतिष और आयुर्वेद के परस्परानुग्रह को विषय बनाकर प्रबन्ध लेखन का कार्य प्रारंभ किया है । For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री ज्ञानभास्कर पाण्डेजी के स्थानान्तरण के अनन्तर इस विभाग को युनिवर्सिटी के अनुस्नातक विभाग के मौलिक सिद्धान्त विभाग के अधीन कर देने से मेरे पुरोगामियों द्वारा प्रारंभ किये गये कार्यका अनुगामी के रूपमें सुचारु संचालन एवं समापन करना मेरा परम कर्तव्य हो गया । अनुपानमंजरी के पूर्णतः प्रतिसंस्कार के विचार को छोडकर अत्यंत अनिवार्य संशोधन के साथ ही मूल हस्तप्रति का प्रकाशन करना अधिक उचित माना गया । इस से पाठकों के साथ ग्रन्थकर्ताकी अधिक निकटता और यथास्थितग्रंथके संशय योग्य विषयों में अधिक योग्य विवरण प्राप्त करनेका सुअवसर प्राप्त होता है । इस पुस्तकके प्रकाशनके समय इस अनुपानमंजरीके मूल लेखक और प्रत्येक हस्त प्रतिके प्रत्येक लिपिकार का आभार प्रदर्शन करना प्रथम कर्तव्य है । साहित्य संशोधन विभाग के मेरे पूर्व के सभी अध्यक्ष तथा वर्तमान कालमें उपस्थित अथ च निवृत्त सहकार्यकर्ताओं के प्रति भी आभार प्रदर्शन करता हूं । इन सभी सजनों ने इस अनुपानमंजरीको मुद्रित रूप में प्रस्तुत करने के मेरे कार्य को पर्याप्त परिश्रम से सफल किया है। विविध विद्या संस्थान और ग्रन्थागार तथा इण्डिया आफिस For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir VI लायन्नेरी लन्दन के कार्यकर्ताओं ने भी यथायोग्यः सूचना - विवरण और योग्य पत्रोत्तर से मुझे उपकृत किया है । गुजरात आयुर्वेद युनिवर्सिटी जामनगरके कुलपति श्री गोरधनभाई पटेल ने हमारे साहित्य संशोधन विभाग द्वारा प्रस्तुत इस अनुपानमंजरीको इस युनिवर्सिटी के द्वितीय पदवीदान के शुभ अवसर पर प्रकाशित करनेका निर्णय देकर उपकृत किया है। तथा श्री चन्द्रकान्तजी शुक्ल, डीन, आई. पी. जी. आर. ने भी इस कार्यमें बहा सहयोग दिया है तदर्थ हम उन दोनों महानुभावों के आभारी हैं । हमारे अनुस्नातक विभागके द्रव्यगुण और रसशास्त्र विभागके अध्यक्षोंने भी विमर्शोमे यथासमय यथायोग्य सहायता देकर हमें उपकृत किया है। मेरे परम प्रिय शिष्य उदयपुर निवासी श्री राजेन्द्र भटनागरी एच. पी. ए. के स्वास्थ्य मासिक के अक्तूबर १९७० के अंक में प्रकाशित लेख में राजस्थानमें प्राप्त अनुपानमंजरी की हस्ततियों का विवरण भी मेरे इस कार्य में उपकारी सिद्ध हुआ है । इस के लिए वे मेरे हार्दिक आशीर्वाद और शुभ कामना ओं के अधिकारी हैं । स्वातंत्र्य रजतोत्सव ता. १५-८-'७२ जामनगर. वि. ज. ठाकर अध्यक्ष-मौलिकसिद्धान्त अनुस्नातक केन्द्र गुजरात आयुर्वेद युनिवर्सिटी For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका संस्कृत वाङ्मयमें गुर्जर प्रान्तीय विद्वानों का योगदान १ महर्षि कणाद गुर्जर प्रान्तीय विद्वानोंके इतर शास्त्र सम्बन्धी योगदान और उनकी असाधारण प्रतिभा तथा प्रतिष्ठा सर्वतो विदित है । परमाणुवादकी प्रथम कल्पना करने वाला वैशेषिक दर्शनको एक वैज्ञानिक स्वरूप देने वाले महर्षि कणाद गुर्जर प्रान्तके सौराष्ट्र नामक प्रदेशमें पुराण प्रसिद्ध श्री प्रभासतीर्थके निवासी और सोमशर्मा नामक आचार्य के प्रिय शिष्य थे । यह इनकी कर्म भूमि थी। इनकी सर्वविज्ञता और उच्चतम प्रतिभा के कारण ही ये शिवके साक्षात् स्वरूपावतार के रूप में सम्मानित किये गये है। इनकी परमाणु सम्बन्धी कल्पनाका प्रथम अवतरण आज के युगके परमाणु विज्ञान के विस्तृत अध्ययन के बीचके रूपमें माना जाना चाहिये । २ आचार्य श्री गौडपाद मायावादका प्रारंभिक बीजवपन करने वाले माण्डूक्यकारिका नामक ग्रन्य के द्वारा माण्डूक्य उपनिषद् की व्याख्या करने वाले आचार्य गौडपाद भगवान श्री शंकराचार्य के गुरु श्रीगोविंदपाद के भी गुरु थे । श्री आदि शंकराचार्य ने :नके बीज रूपसे संग्रहीत मायावाद को पूर्णतः पुष्पित पल्लवित कर अपने अद्वैत वेदान्त सिद्धान्त की सुद्रढ स्थापना की। ये आचार्य गोदपाद की जन्मभूमि और कर्म भूमि गुजरात प्रान्तमें प्रवाहित नर्मदा नदी के तोर प्रान्त प्रदेश थे ऐसा लोक श्रुतिसे माना जाता For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ आचार्य श्रीकपिल सांख्यशास्त्र के प्रथम प्रवक्ता आचार्य कपिल भगवान विष्णु के अवतार माने जातें हैं । इन्होंने अपने अवतरण और अवतार कार्य निर्वहमके योग्य गुर्जर प्रान्तके सिद्ध पुर नामक नगर के आसपास बिन्दु सरोवर नामक पवित्र स्थानको चुनकर गुर्जर "प्रान्तको परम सौभाग्य प्रदान किया । इन्होंने प्रकृति - पुरुष - चौवीस-पच्चीस तत्व समुदाय आदि सांख्य शास्त्रके मूल आधारों का वर्णन और विस्तृत विचारों को सूत्रात्मक रूपमें समझाने का प्रयास किया । ईश्वर को मानने वाले और न मानने वाले सेश्वर और निरीश्वर सांख्य दो प्रकार के शास्त्रसम्मत वाद प्रस्थापित । इस प्रकार दर्शन शास्त्र के मूल सिद्धान्तों की प्रस्थापना योग्य प्रतिभा गुर्जर प्रान्त के सौभाग्य शील प्रदान का ही परिणाम है । इस प्रकार दर्शन शास्त्र के द्वारा आध्यात्मिक शान्ति प्रदान के समान मनुष्यको आरोग्य और दीर्घायु प्रदान कर भौतिक शान्ति प्राप्त करने के उपाय प्रदर्शित करने वाले महान आयुर्वेद शास्त्र को भी गुर्जर प्रान्तकी पवित्र भूमिके सुपुत्रोंका सहयोग प्राप्त हुआ है । आयुर्वेदिक वाङ्मय गुजरातप्रान्तके विद्वानोंका योगदान १ आचार्य श्री सोढल आयुर्वेदशास्त्र के 'गदनिग्रह' नामक औषधि योग और रोग चिकित्सा के परम प्रसिद्ध ग्रन्थके लेखक आचार्यश्री सोढल गुर्जर प्रान्तके ब्राह्मणकुलो में प्रसिद्ध रायकवाल ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न हुए थे । इनका वत्स नामक गोत्र था । चिकित्साशास्त्र के परम विद्वान वैद्यनन्दन नामक (१) श्रीमद्भागवत ३-२४--९ । ३-२१-३३ । वायु पुराण ३८-३–७. For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan परमश्रोत्रिय ब्राह्मणके सुपुत्र थे। इनके गुरु का नाम संघदयालु था। आचार्य सोढल आयुर्वेद के उपरांत ज्योतिष आदि अन्यान्य शास्त्रों के भी परम विद्वान् माने जाते थे। गुजरातके राजा द्वितीय भीमदेवके द्वारा उकित एक ताम्रपत्र में रायकवाल जाति के ब्राह्मण ज्योति सोढलके पुत्र को दान देने का उल्लेख है। इससे उनके राज्यमान्य परम विद्वानों की सूची में समाविष्ट होने का प्रमाण मिलता है । 'गनिग्रह' नामक ग्रन्थमें इन्हों ने अन्य निघण्टुओ में अप्राप्य और केवल गुजरात प्रान्तको भूमिमें ही उपलब्ध होने वाली वनस्पतियोंका उल्लेख किया है । इन वनस्पतियोंके उल्लेख से भी इन के गुजरात प्रान्तके निवासकी पुष्टि होती है। इन्हों ने ही चिकित्सा शास्त्र के उपयोगी योगों को पृथक् करके रोगानुसार योगों का उल्लेख करने का प्रारंभ किया है । २ आचार्यश्री यशोधर " रसप्रकाशसुधाकर" नामक रसशास्त्र के ग्रन्थ के लेखक आचार्य यशोधर गुजरात प्रान्त के सौराष्ट्र नामक प्रदेशमें परमतीर्थ स्वरूप .गिरिराज गिरनार पर्वत की उपत्यकाओं में स्थित जूनागढ नामक नगर के निवासी थे। ये श्रीगोड नामक ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न हुए थे। इनके पिताका नाम पद्मनाम था । 'रसप्रकाशसुधाकर' नामक ग्रन्थ में रसशास्त्र सम्बन्धी सिद्धान्तों का विशद वर्णन किया गया है । यह ग्रन्थ इनके पूर्व में रचित रसशास्त्र के ग्रन्थों से अधिक व्यवस्थित प्रतीत होता है। इस की रचनाके For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्तर दूसरे विद्वानों द्वारा रचित रसशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थ इमको आदर्श मानकर चले हैं ऐसा प्रतीत होता है। ३ आचार्य श्री शाङ्गधर. “शिशती' नामक त्रिदोषज्वर निदानचिकित्सा विषयक ग्रन्थ के लेखक आचार्य शार्गधर थे । इनके पिताका नाम आचार्य देवराज था । पन्द्रहवीं शती में आयुर्वेदके परम विद्धानोंमें इनकी गणना होनेका उल्लेख मिलता है । इससे ये चौदहवीं या इससे पूर्वकी शती में उत्पन्न हुए होंगे । 'त्रिशती ' नामक ग्रन्थ में त्रिदोष ज्वरकी चिकित्सा और निदान सम्बन्धी प्रामाणिक और विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है । भावप्रकाशकारने इसी ग्रन्थको प्रमाण मानकर इसीके आधार पर त्रिदोषज्वनिदानचिकित्सा सम्बन्धी अपने ग्रन्थ का निर्माण किया है । ४ वैद्य श्री रघुनाथ इन्द्रजी ( कता भट्ट ) " निघण्टसंग्रह" नामक ग्रन्थ के लेखक वैद्य श्री रघुनाथजी जूनागढके निवासी थे । इनके गुरु श्री विठ्ठल भट्टजी जामनगरके निवासी थे । श्री विठ्ठल भट्टजी का जन्म संवत १७९६ में हुआ था। श्री विठ्ठल भट्टजी के शिष्य होनेसे श्री रघुनाथजी उनके समकालीन और उत्तरकालीन होना चाहिये । इस अनुपानमंजरीकार का समय १८३७-३८ के आसपास का । इससे यह प्रतीत होता है कि श्री विठ्ठल भट्टजी का जन्म समय १७९६ से अनुपानमंजरीकार के लेखन का समय १८३७-३८ होनेसे प्राय: For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० - ४५ वर्षोका अन्तराल श्री विठ्ठल भट्ट उनके शिष्य रघुनाथजी और अनुपानमंजरीकार स्वयं तथा उनके गुरु पीताम्बर ये सभी परस्पर समकाली होने चाहिये । ' निघण्टसंग्रह' नामक ग्रन्थ में इन्होंने प्राचीन संहिता ग्रन्थों और निघण्टु ग्रन्थों में अनुपलब्ध और आधुनिक आहारमें प्रयुक्त वनस्पतियोंका संग्रह किया है । इस विस्तृत विचारसे यह विदित होता है कि दर्शन शास्त्रोंका प्रेरणास्रोत गुजरात में था और इसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्रमें भी विशिष्ट प्रदान गुजरात प्रान्त के विद्वानोंका था । जिस प्रकार दर्शन शास्त्रमें योगदान करने वाले गुजरात के विद्वानों का एक विशिष्ट स्थान है उसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्रमें भी गुजरात के विद्वानों ने एक नवीन और विशिष्ट प्रदान द्वारा प्रतिभापूर्ण व्यक्तित्वका निर्माण किया है । प्रकाशनके लिए स्वीकृत यह ' अनुपानमंजरी' नामक ग्रन्थ भी अपनी एक विशिष्ट गुणवनाके कारण आयुर्वेद शास्त्रको एक मूल्यवान प्रदान है । इस ग्रन्थ में विष चिकित्सा को विषय बनाकर स्थावर, जंगम और धातु, उपधातु सम्बन्धी विप चिकित्साका वर्णन सरस और सरल भाषामें किया गया है । ५ आचार्य श्री विश्रामजी इस अनुपानमंजरी और व्याधिनिग्रह नामक एक अन्य रोगचिकित्सा विषयक ग्रन्थके लेखक आचार्य श्री विश्रामजी का जन्म अट्ठारहवीं शताब्दिमें गुजरात प्रान्त के अन्तर्गत एक कच्छ नामक प्रदेशके अंजार नामक शहरमें हुआ था । For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन आचार्य विश्रामजीने अपना परिचय गुरुपरम्परा के निर्देश द्वारा दिया है । इनके पितृकुल और इसके उपयुक्त अन्य बातोंका संकेत नहीं मिलता । श्राचार्य श्री विश्राम जैनधर्म में प्रसिध्ध गोरजी ( गुरुजी - गुरजी ) आगम गच्छ नामक एक अवान्तर शाखा में सम्मिलित जीव ( जीवाभाई ) नामक गोरजी के शिष्य श्री पीताम्बर गोरजी के शिष्य थे । इस प्रकार श्री विश्राम श्री पीताम्बर गोरजी के शिष्य और श्री जीव नामक गोरजी के प्रशिष्य थे । इस गुरु परम्पराके वर्णनसे यह प्रतीत होता है कि जैन धर्मावलम्बी गुरु परंपरामें प्राचार्यश्री विश्रामजीका शिष्य रूपमें समावेश है परंतु स्वयं आयुर्वेद आदि शास्त्र सम्बन्धी ज्ञान प्राप्ति पर्यन्त हो जैन परंपराका अवलम्बन करते थे और इनका कुलधर्म जैन संप्रदाय नहीं था ऐसे स्पष्ट ग्रन्थस्थ प्रमाण प्राप्त होते हैं कालनिर्णय संवदष्टादशे वर्षे सागरानेत्र चाधिके । चैत्रे सिते च पञ्चम्यां गुरौ वारे च ग्रन्थकृत् ॥ कूर्मदेशेऽर्जुनपुरे तत्र वासी सदा किल । गुरुजीवाभिधानस्य गच्छश्चागमसंज्ञकः ।। तस्य पीताम्बरः शिष्यः तत्पादवन्दकः सदा । देवगुरुप्रसादेन विश्रामो ग्रन्थकारकः || अनृपानमंजरी ५ / ३९ - ४१ संदष्टादशे चाब्दे अंकाग्निवर्ष संयुते । मासे भाद्रे कृष्णपक्षे पंचम्यां गुरुवासरे || For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७ आ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कूर्मदेशेऽर्जुनपुरे तत्रावासः कृतो यतः । गुरुर्जीवाभिधानश्च गच्छे चागमसंज्ञिते ।। तस्य पीताम्बरः शिष्यः तत्पादाम्बुजककरः । देवगुरुप्रसादेन विश्राम ग्रन्थकारकः ॥ व्याधिनिग्रह ५१२-५१४ इस प्रकार के ग्रन्थ निर्देश में - संवदष्टादशे वर्षे और संवदष्टादशे चाब्दे इन दो समानार्थक वाक्याशों के अनन्तर सागरानेत्र चाधिके और अंकाग्निवर्ष संयुते इन वाक्याशोंका अर्थ सागर ( ७-४) नेत्र ( २ - ३ ) अंक ( ९ ) अग्नि ( ३ ) इस प्रकारके संख्या के सांकेतिक अर्थ और अंकानाम् वामतो गतिः इस नियम के अनुसार १८२४, १८२७, १८३४, १८३७, १८३९, १८४२, १८४३, १८७२, १८७३, १८९३, इस प्रकारके दशविध विकल्प प्राप्त होते हैं। व्याधिनि पह अ चेला मोतीचंदजी महादजी चांपसी पठनार्थ श्री मांडवी बिदरे सं १८७२ चैत्र शुदी ५ गुरी लिपी कृतम् । शिवजी मालजी शिष्यार्थं पठन हेतवे सं १८७३ मा वर्षे महाविद १४ शुक्रे । अनुपानम जरी (ग) संवत् १८६१ वर्षे आषाढ शुद्ध ५ गुरी । गुरुजी श्री पू लालजी चेला मूलजी पठनार्थ लेखकपाठकयोः शुभं भूयात् । उपरोक्त विवरण से यह सिद्ध होता है कि अनुपानमंजरी और व्याधिनिग्रह नामक दोनों ग्रन्थ विविध शिष्योंके पठनार्थं संवत् १८६१, १८७२, १८७३, इन वर्षोंमें अनुलेखन किये गए । इस अनुलेखन किये हुए और पठन योग्य स्थितिमें प्राप्त ये दोनों ग्रन्थ इस अनुलेखन कालके पर्याप्त पूर्व में For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रचित किये होंगे । इससे संवत १८६१ से पूर्वके वर्ष ही इन दोनों ग्रन्थों का रचना काल मानना उचित होगा । संवत १८२४ से संवत १८४३ पर्यन्तके वर्ष इन दो ग्रन्थोंकी रचना के लिए स्वीकृति योग्य हैं । सन् १९३९ में प्रकाशित गोंडल रसशाला औषधाश्रम से प्रकाशित व्याधिनिग्रह नामक पुस्तक की भूमिका में विद्वान और वयोवृद्ध श्री जीवराम कालीदासजीनं इस पुस्तकका रचना काल संवत् १८३९ में माना है । व्याधिनिग्रह आयुर्वेद के सभी अंगो को लेकर निर्मित ग्रन्थ है और अनुपानमंजरी केवल विषचिकित्सा रूप एक अंग को ही विषय बनाकर रचित ग्रन्थ है । कोई भी लेखक सम्पूर्ण शास्त्र के सभी अंगों का समावृत्त करनेवाले ग्रन्थ लेखन के पूर्व में ही अपने लेखन प्रयास की परीक्षा और साफल्य प्राप्ति के आत्मविश्वास के लिए भी एक विषय विषयक ग्रन्थ की रचना करना उचित मानेगा । इस तर्क के अनुसार व्याधिनिग्रह नामक ग्रंथ के पूर्व अनुपान मंजरी नामक गन्थ की रचना मानना होगा । जब व्याधिनिगह का रचनाकाल संवत् १८३९ स्वीकृत किया गया है तो इससे पूर्व के १८२४, १८०७, १८३४ और १८३७ में से कोई भी वर्ष अनुपान मंजरी के रचना कालके लिए स्वीकृत किया जाना उचित है । श्री कतोभट्टजी के गुरु श्री विट्ठलभट्टजी का जन्म समय संवत् १७९: माना गया है । ग्रनुपानमंजरी के रचनाकाल संवत १८४२ के आसपास श्री विठ्ठल भट्टजी की आयु ४६ वर्ष के आसपास होगी । इसी समय श्री कतोभट्ट विद्यार्थी रूप में अथवा अध्ययन समाप्त कर अधिकारी विद्वान के रूप में वर्तमान होंगे । अनुपान मंजरीकार भी इसी आयु और इसी प्रकार के विशिष्ट विद्वान के For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar रूप में सुस्थिर होंगे । इस प्रकार निघण्टसंग्रहकार - कतोभट्ट उनके गुरु श्री विठ्ठल भट्ट और अनुपानमंजरीकार श्री विश्रामजी आदि समकालीन होने का अनुमान यथार्थ प्रतीत होता है । स्थाननिर्णय(अर्जुनपुर और कुर्मदेश) ___ कच्छ प्रदेश गुजरात प्रान्त का एक भूमिभाग है । अर्जुनपुर नामक नगर कच्छ प्रदेश में अंजार नामक एक नगर है । गुजरात प्रान्त के ही कच्छ प्रदेश और उसके अंतर्गत अंजार नामक नगर को कूर्मप्रदेश और अर्जुनपुर के पर्याय के रूपमें लेने से ग्रन्थकर्ता का गुजरात प्रान्त के निवासी होना अपरिहार्य रूपमें सिद्ध होता है। इस विषय को व्याधिनिग्रह और अनुपानमंजरी नामक ग्रन्थ के प्रमाणों द्वारा अधिक स्पष्ट किया गया है । द्रव्यनाम - ग्रन्थनाम মূলারী संस्कृत स्वरूप व्याधिनिग्रह जेठीमध छाल एख रो बिलीपत्र ५०/ ५५/ बाल १६४ हिमेज १५४ आंबो ३७५/ लालक रेण ४१२/ फटकडी ४५५/ ज्येष्ठा । (यष्टी) छल्ली (छल्ल) अहिखर (इक्षरक) बिल्वी बल्ला हिमजा (बाल हरीतकी) अम्ब (आम्र) रक्त कणवीर कटकी (स्फटिका) For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ग्रन्थनाम अनुपान मंजरी व्याधिनिग्रह अनुपान मंजरी व्याधिनिग्रह अनुपान मंजरी www.kobatirth.org गुजराती तज २/५ शिलाजित् २ / १५ ३/४ पटवण संदेसडा हिमेज मेंदी रोगनाम हरस ६३/ बन्धकोष्ठ १५२ / रान्धण सत्पुडा ३२५/ झामरो ६५१ /. वालो ३४२ / रसोली ३४६/ ३/५ १/७ ५/५ आमवायु ३०० / खिल ३८५/ लू क्रियानाम डांभ देना (दाग़ना) डांभ ३/१५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only त्वक संस्कृत स्वरूप शिलाजतु कापस सिद्धनाथ : शिवा मदयन्तिका हर्ष बद्धकोष्ठ गृध्रसी सप्तपुटम अमेरीक: वालकम् ( स्नायुकः ) रसोलिका ग्राम्बवायु खिल्ल लक डंभयेत् २४८/ भनक्रिया ५ / ३४ इस प्रकार व्याधिनिग्रह ओर अनुपानमंजरी नामक ग्रन्थो में वर्णन योग्य द्रव्य रोग, क्रिया, आदि को लेखकने मूल गुजरात प्रान्त में व्यवहृत शब्दोंको संस्कृत स्वरूप देकर प्रयोग किया है । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याधिनिग्रह ओर अनुपानमंजरी नामक ग्रन्थोमे गुजराती शब्दों के संस्कृत स्वरूपमें प्रयोग ग्रन्थकारके गजरात प्रान्त के निवासी होनेका समर्थन करता है । इसीसे कूर्म प्रदेश गुजरात प्रान्तके अन्तर्गत कच्छ प्रदेश ओर अर्जुनपुर नामक नगर अंजार नामक नगरका होना भी समर्थित होता है । इस प्रकार आचार्यश्री विश्रामजीका गुजरात प्रान्तके निवासी होना प्रबल रूपसे समथित हो जाता है । आचार्य विश्रामजी वैदिक धर्मावलम्बी थे अनुपानमंजरीके प्रथम समुद्देशके १०, ११, १३ श्लोकोमें क्रमशः . यथा पापम् शिवार्चनें । पापम केशवदर्शनात । कष्टं देवार्चने यथा । इन तीन वाक्यांशों द्वारा भगवान शिव और विष्णुको पापनाशक परमेश्वर के रूपमे वर्णित किया गया है । ... जैन धर्मको स्वधर्म के रूपमें स्वीकार करने वाले लेखकका इस प्रकार वैदिक धर्म के मान्य ईश्वर स्वरूपांका उपमा उपमेय भावसे सामान्य जनता के लिए वर्णन करना संभवित नहीं। लेखकने स्वयम मंगलाचरणका प्रारंभ भी श्रीगणेशाय नमः । श्री धन्वंतरये नमः आदि वैदिक धर्मावलम्बियोंकी प्रणालीके अनुसार ही किया है । इन सब प्रमाणों से ग्रन्थकारका स्वयं जैन धर्मावलम्बी न होकर वैदिक धर्मावलम्बी होना ही प्रबल रूप से समर्थित है। लेखकने प्रारंभमें और मंगलाचरणकी अनन्तर प्रथम समुद्देशके पूर्व निर्दिष्ट आवश्यक स्थानों पर वैदिक धर्मावलम्बन के परिचयमें जैन धर्म के For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अंश मात्र का भी स्पर्श न करनेका सावधान प्रयत्न किया है । इसी लेखकने ग्रन्थके प्रतमें अपने गुरु जनोंका परिचय देते समय जैनधर्म उसके अवान्तर गच्छ और गुरुजीको गुरुजी (गोरजी) कहने के प्रचार आदिका सम्पूर्ण उल्लेख किया है। इस गुरु परंपराके जैन धर्मावलम्बी होने में और इस विषयके यथावस्थित वर्णन और प्रदर्शनमें लेखकको कोई संकोच का अनुभव न होने से लेखक स्वयं वैदिक धर्मावलम्बी होने पर भी जैन धर्मकी गुरु परंपरा के शिष्य थे। इस प्रकार स्वयं वैदिक धर्मावलम्बी और जैनधर्मावलम्बी गुरु परंपरा के शिष्य श्री आचार्य विश्रामजी स्वयम उदार चरित और परम विद्वान पुरुष थे। आचार्यश्री विश्रामजी आयुर्वेदके आकर ग्रन्थों से परिचित थे न नक्तं दधि भुञ्जीत --- चरक सू. प्र. १/६१ __व्याधिनिग्रह श्लो. २०९ योगराज इति ख्यातो योगोऽयममतोपत्रमः चरक चि. अ-१६/६५ व्याधिनिग्रह श्लो. २१२ वाते साज्यरसोनकः अनुपानमंजरी ५/३१ लशुनः प्रभंजनम् अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/५२ धनपर्पटकं ज्वरे अनुपानमंजरी ५/३१ मुस्तापर्पटकं ज्वरें अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/४८ ग्रहण्यां मधितम् अनुपानमंजरी ५/३२ मथितम् ग्रहण्याम अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/५० हेम विषे अनुपानमंजरी ५/३२ गरेष हेम अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४० वमिषु लाजाः मनुपानमंजरी ५/३० For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra लाजारछदिषु कुटजोऽतिस्ती कुटजोऽतिसारे वृषोऽत्र पित्ते कृमी कृमिघ्नः कृमिषु कृमिघ्नम् www.kobatirth.org १३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/४८ अनुपान मंजरी ५ / ३२ अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/४९ अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/४९ अनुपान मंजरी ५/३२ अष्टांगहृदय उत्तरत्रंत अ. ४०/४९ इस उक्त विवरण से यह प्रतीत होता है कि अनुपानमंजरी के लेखक आयुर्वेद आकर ग्रन्थोंसे पूर्णतः परिचित थे । इन्होंने आयुर्वेद उपचार पद्धति और इस शास्त्र के सिद्धान्तोंका कथन इन्हीं आकर ग्रन्थोंकी शब्दावली में किया है । सुश्रुतसंहितामें निर्दिष्ट अग्निकर्म और किसी भी प्रकारकी ग्रन्थिको भेदन क्रिया का उल्लेखन अनुदान मंजरीके पंचमसमुद्देशमें डंभन क्रिया के रूपमें और चतुर्थ समुद्देशमें आखुविषजन्य ग्रन्थिके विस्फोटनके रूपमें किया है । पंचम समुद्देशमें वर्णित रसशास्त्र से सम्बद्ध खनिज या धातु और उपधातु आदि द्रव्योंके शोधन - मारण एवं उनके श्रौषधके रूपमें उपयोग के विधानसे स्पष्टत: प्रतीत होता है कि अनुपानमंजरीकार आचार्य विश्रामजी रसशास्त्र के आकर एवं उपजीव्य ग्रन्थोंसे पूर्णितः परिचित तथा अवगत थे । For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४. अनुपानम जरी ( विषयनिरूपण ) इस ग्रन्थका प्रमुख विषय विष-चिकित्सा है । इस विविध प्रकारके विषोंसे सम्बन्धित उल्लेख इस ग्रन्थके प्रारंभ में इस प्रकार किया गया है । धातुस्तथोपधातुश्च विषं स्थावरजंगमम् । तद्विकारस्य शान्त्यर्थ वक्ष्येऽनुपानम जरीम् ॥ अपक्वपक्वधातूनां विप दंष्ट्रिणभक्षणात् । तथोपधातोश्च तद्वत् विकारशान्तिरुच्यते ॥ - अनुपानमंजरी प्रथम समुदेश श्लोक २-३ सामान्य रूपसे विषकी व्याख्या शास्तकारोंकी सम्मतिमें यह है कि केवल खानेसे या किसी प्रकारके सेवनसे ही नहीं अपितु केवल नाम श्रवण अथवा दर्शनमासे भी विषाद उत्पन्न करने वाले पदार्थको विष कहना चाहिये । विषकी संरचनाकी द्रष्टिसे अग्नि- मारुतगुणभूयिष्ट, व्यवायी, बिकाशी, तीक्ष्णगुण युक्त पदार्थ है । यह विष स्वाभाविक रूपसे ही. शरीर के लिए महित अथवा विरुद्ध है । . चरकसंहिताकारने विरुद्ध द्र व्यकी व्याख्या करते हुए यह कहा है कि विष द्रव्य देह धातुओं से प्रत्यनीक होनेके कारण देह विरोधी प्रभाव उत्पन्न करता है । विष-शस्त्रा-क्षार अग्नि आदि पदार्थ स्वाभाविक रूपसे ही जीवन क्रियाके विरोधी होते हैं । जल दूध घृत आदि हितकारी पदार्थ स्वाभाविक रूपसे ही जीवन क्रियाके अनुकूल होने से प्रसादजनक हैं । जीवन क्रियाके विरोधी पदार्थको विषाद जनक कहते हैं । For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. विषाद जनक पदार्थ द्वारा शरीरमें होने वाली क्रिया का वर्णन करते हुए यह कहा गया है कि ये पदार्थ शरीरके किसी न किसी एक या अधिक दोषोंको उक्लिष्ट करते हैं । कभी इनके तीव्र और शीध्र प्रकोपसे आशुमरण होता है । कभी इनके मन्द प्रभावसे शीतपित्त, कोढ, शोथ, उन्माद, मच्छौ, आदि रक्तदुष्टि विकार उत्पन्न होते हैं । ये सभी विकार मन्दविष अथवा कालान्तर प्रकोपी विषके परिणाम हैं । आयुर्वेदमें स्वभावत: विरुद्ध पदार्थोमे विषका उल्लेख है । इस विष के स्थावर और जंगम दो मुख्य भेद हैं । इन दो प्रकारोके विषके दुर्बल होने पर, देहसे सम्पूर्णरूपसे बाहर न निकलने पर, औषध आदि से विष विकारके दबाये जाने पर, परंतु ऋतु अन्नपान आदि सहायक गुणों से बल मिल जाने पर शरीरमें उनके कालान्तर में प्रकोपक लक्षण स्वरूप विकार उत्पन्न होते हैं । इनको दूषीविष कहा गया है। इन दो प्रकारों के विष के उपरांत एक गर नामका एक और प्रकार भी है । यह गर नामक विष स्वभावतः हितकर पदार्थोंके भी अनुचित संयोग अथवा संस्कारसे उत्पन्न होता है । अतः इस प्रकारके विषको संयोगज अथवा कृत्रिम विष कहा गया है । अनेक प्रकारके आहार द्रव्य स्वभावत: गुणयुक्त तथा हितकारी होते हुए भी अनुचित संयोग अथवा संस्कार से विष प्रभाव उत्पन्न करने लगते हैं । इस प्रकार अन्न के भी कभी विष बनने और विषके भी कभी रसायन बननेका मुख्य आधार उचितानुचित संयोग और संस्कार ही है । इसीका शास्त्रकारोंने युक्ति और अयुक्ति शब्दों द्वारा उल्लेख किया है। For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar देहकी स्थिति, दोष की स्थिति, औषधकी मात्रा तथा नित्यग-आवस्थिक कालकी स्थिति इत्यादिका विचार करके उचित मात्रामें उचित कल्पनामें द्रव्य के प्रयोगको युक्ति और इसके विपरीत अयुक्ति कहते है। विषका अमृतीकरण युक्तिका उदाहरण और अन्न औषध आदि अमृत रूप पदार्थोका विषरूपमें परिणाम अयुक्तिका उदाहरण है। . प्रस्तुत प्रकारोमें स्थावर और जंगम विषका अनुपानमंजरीमे स्पष्ट उल्लेख किया गया है। दंष्ट्रिीविष का भी जंगम विष में समावेश किया है । पक्व-अपक्व धातु-उपधातु भक्षण जन्य विषका समावेश शास्त्रोक्त 'गर' विषमें किया जा सकता है। आचार्यश्री विश्रामने गर शब्दको नाम माधसे कहीं भी उल्लेख नहीं किया, यह आश्चर्यकी बात है। इन्होंने विषजन्य विकारोंकी सूचीमें शोथ पांडु आदिका निर्देश दूषविष अथवा कालान्तर प्रकोपी विषजन्य विकारों के रूप ही किया है। विष के तत्काल प्रभाव दाह, शूल, रक्तस्त्राव, मूर्छा, मृत्युकी चिकित्साका यहां पर (सर्प- वृश्चिक-माखु प्रादिके विषज विकारों को छोडकर) वर्णन करना ग्रन्थकारको अभीष्ट नहीं प्रतीत होता। दूषीविषका भी नामोल्लेख न होना एक आश्चर्यकी बात है। इस ग्रन्थके लेखक प्राचार्यश्री विश्रामजी का प्रमुख रूपसे काय चिकित्सक होना इनके व्याधिनिग्रह और अनुपानमंजरी नामक दो ग्रन्थों के वर्यालोचनसे निश्चित होता है। For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan अशुद्ध धातु-उपधातुके प्रयोगसे तथा मिथ्या अनुपानसे व्याधियोंकी उत्पत्ति देखकर उनके शमनार्थ इन्होंने विषोंकी चिकित्सा बताई है । इससे आयुर्वेदके अन्य अंग अगदतंरके भी ज्ञाता और विष चिकित्सक होना इनकी एक विशेषता है। धातु-उपधातुओं के उचित अनुपानके साथ प्रयोगको चिकित्सा तत्व के रूपमें प्रदर्शित करने के इनके तात्पर्यकी पूर्ति इनके द्वारा प्रदर्शित धातुउपधातुके शोधन मारण के प्रकारोंसे भी होती है । इस प्रकार रसशास्त्र, और औषध निर्माणके कर्म मार्ग से भी इनका परिचित होना सिद्ध होता है । सरल अनुष्टुभ छंदोमें एक एक विणके एक या दो योगोंका उल्लेख कर अपने अनुभवको संक्षेपमें प्रस्तुत करने के प्रयत्नमें भी छन्दोभंग, विभक्ति वचन-क्रिया आदिमें अशुद्धि आदिसे इस ग्रन्थकारकी संस्कृत भाषामें आवश्मक प्रभुता या प्रकाण्ड पाण्डित्य समर्थित नहीं हो सकता । हिन्दी अनुवाद इस ग्रन्थ की एक ऐसी प्रतिमें गुजराती अनुवाद भी प्राप्त हुआ है । इस मूल ग्रन्थकार ने ही यह गुजराती अनुवाद किया है यह किसी भी संकेतसे सूचित नहीं होता और किसी दूसरे लेखक का भी संकेत प्राप्त नहीं होता है । इसी गुजराती अनुवादकी सहायतासे पाठ शोधन तथा गुजराती अनुवादकालपर्यन्त के ग्रन्थकर्ता के अभिप्रायको समझने में सहायता प्राप्त हुई है । इसीकी सहायताके आधार पर ही हिन्दी अनुवाद आपके समक्ष प्रस्तुत For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अनुपानमंजरीके विवादास्पद विषय अनुपानमंजरीमें खनिज द्रव्योंके धातु और उपधातु इस प्रकार दो वर्ग दिये हैं । रसशास्त्र के प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थोमे किसी भी ग्रन्थमे इस प्रकार का वर्गीकरण नहीं किया गया है । रसशास्त्राके ग्रन्थोमें दिये गए वर्गीकरणसे सर्वथा नवीन वर्गीकरण इस अनुपानमंजरीमे दृष्टिगोचर होता है । चरकसंहितामें जांगम, औद्भिद, और पार्थिव (भौम) इस प्रकार औषध द्रव्योंका वर्गीकरण किया गया है। इन्हीं द्रव्योंको पुनः शारीरिक विशेषता के आधार पर वर्गीकृत किया गया है । दंष्ट्री, विषाणी, एकशफ, सरीसृप, बिलेशय, आदि जंगमके मूलिनी, फलिनी, क्षीरि, पुष्पवर्ग, पल्लव, त्वक्वर्ग, कण्टक, तृण, आदि उद्भिदके, धातु उपधातु, रस, उपरस, रत्न, उपरत्न, विष, उपविष, क्षार आदि रूपमें खनिज-भूमिज या पार्थिव द्रव्योंका वर्गीकरण करनेका प्रचार निघण्टु ओर रसशास्त्र के विकास से हुआ है । आचार्यश्री विश्रामके सामने इस ग्रन्थ की रचना के समय रस, धातु, विष, रत्न और इनके अवान्तर वर्ग उपरस, उपधातु, उपविष, उपरत्न आदि के लिए किसी एक निश्चित परिभाषा का होना प्रतीत नहीं होता । इस प्रकार इस ग्रन्थ में ग्रन्थकारने खनिज द्रव्योंके वर्गीकरणका एक स्वतंत्र मार्ग ही अपनाया हैं । प्रथम समुदेश प्रस्तुत ग्रन्थके प्रथम समुद्देशमें सात धातुओंका उल्लेख तज्जन्य विकार वर्णनके प्रसंगमें किया गया है । सुवर्ण, रौप्य, ताम्र, बंग, नाग, For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यशद, तथा लोह ये सात धातु हैं । पित्तल, मण्डूर, कृपाणलोह, पिङग, धोष, इन मिश्र लोह जिनका निर्माण कृत्रिम रूपसे होता है इनका भी धातुओं के साथ इसी समुद्देशमें वर्णन किया गया है । द्वितीय समुद्देश इस ग्रन्थके द्वितीय समुद्देशमें उपधातुओंका उल्लेख है इनमें पारदका उपधातु के रूपमें सर्व प्रथम उल्लेख ध्यान देने योग्य है । वस्तुतः पारद रस द्रव्य है । केवल खनिज होनेसे या हिंगुल रूपमें यौगिक खनिजके रूपमें भूमिसे प्राप्त होने के कारण ताल, मनःशिला, तुत्थ, कासीस, आदि धातुओं के खनिज यौगिकोंके साथ इसका निर्देश भी उपधातुके रूपमें किया जाना संभवित है । हिंगुल का इस अध्यायमें कहीं भी उल्लेख नहीं है जबकि पारदका पारद और सूत इन दो नामोंसे उल्लेख प्राप्त है । अन्य द्रव्योंमें मल्ल तथा उनके खनिज यौगिक ताल, मनःशिला, गंधक (बलि) अभ्रक, माक्षिक, तुत्थ, मृद्दारा ग, कासीस, गैरिक, इन सबका उपधातुओंके रूपमें उल्लेख किया गया है । इस वर्ग में मुक्ता और प्रवाल जो वास्तव में प्राणिज द्रव्य हैं उनका भी उपधातुओंके साथ उल्लेख किया है और रसकर्पूर तथा नवसार जो कि कृत्रिम रूपसे निर्माणके अनन्तर ही उपलब्ध होने योग्य है इनको भी उपधातुके बर्ग में परिगणित किया गया है। तृतीय समुद्देश इस ग्रन्थ के तृतीय समुद्देशमें अहिफेन, भंगा, दन्तीबीज एवं उच्चटा आदि विष का स्थावर विषके रूपमें उल्लेख किया गया है । प्राचीन संहिता For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ग्रन्थमें इनका उल्लेख न होनेसे यह विशेष विचारणीय है । इन विषोंसे शाहगंधर और भावप्रकाशके अनन्तर आचार्यश्री विश्रामजीके काल पर्यन्त जन सामान्यका पूर्णतः परिचित हो जाना संभवित है। इसी कारणसे विषलक्षणके भी प्रचुर प्रसंग प्राप्त होते होंगे जिसको चिकित्सा यहां प्रदर्शित की गई है । दन्तीबीजका प्रयोग यूनानी सम्पर्कके अनन्सर होने लगा है। प्राचीन कालमें दन्तीमलका उल्लेख प्राप्त होता है। उच्च टाका भी विषरूपमें प्रयोग दिया गया है। यह भावप्रकाशमें उपविषोंमें निर्दिष्ट गुंजाका वाचक प्रतीत होता है। इन स्थावर विषोंके वर्णन प्रसंग में 'लूक' नामक रोग का उल्लेख है । यह सूर्यतापसे उत्पन्न दुष्ट वातसे उत्पन्न होता है ऐसा स्पष्ट निर्देश देकर इसको स्थावर विषके प्रकरणमें दिया है । इससे यह प्रतीत होता है कि विषप्रयोगसे उत्पन्न दाह, सन्ताप तृषा, शैत्य आदि लक्षणों के साम्यसे अप्रासंगिक होनेपर भी प्रसंगवंश सदृश चिकित्सा योग्य होनेसे इस लूक रोक्का भी यहां समाविष्ट होना उचित माना गया है । लूक शब्द गुजराती हिन्दी आदि भाषामें गर्म रूक्ष वायुके लिए तथा तज्जन्य विकारोंके लिए भी प्रचलित लू शब्द का ही संस्कृतीकरण प्रतीत होता है । चतुर्थ समुद्देश इस ग्रन्थ के चतुर्थ समुद्देशमें जंगम विषोंमें सर्प, वृश्चिक, कुक्कुर, छछंदर, आलु, जलौका आदि विषले प्राणियोंका निर्देश है । इसके साथ श्वेत For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २.१ भूषक पतनसे होनेवाले ग्रन्थियोंके उग्दमका वर्णन उस समय मरकी (Plague) नामक संक्रामक ग्रन्थिक ज्वरके निर्देशका संकेत विशेष उल्लेखनीय हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुश्रुतमें भी आखुके दंशसे आखुके आकारको ग्रन्थियोंकी उत्पत्तिका वर्णन है । परन्तु वहां इस ग्रन्थ में श्वेत मूषक और उसके पतनका निर्देश महत्वपूर्ण है । मत्कुण, मक्खी, मच्छर और आखु आदिको घरसे हटाने के लिए विशिष्ट प्रकारका दीपक तथा धूप तैयार करनेका निर्देश भी विशेष उल्लेखनीय है । शिर तथा शरीर परके जन्तु युका लिक्षाको हटानेके लिए लेप तथा औषध भावित वस्त्र धारण करनेका इस ग्रन्थ में जो वर्णन और विधान है वह अन्यत्र अनुपलब्ध चिकित्सा प्रकार है । गुजराती भाषा में शिरःस्थ कृमि यूकाको 'जू' इसके सफेद अण्डों 'लिक्षा' को 'लिख तथा देहस्थ लोममूल में स्वेद मलसे उत्पन्न कृमिके लिए: सवा या सावा शब्दका व्यवहार होता है । प्रस्तुत कृमिघ्न देह लेप के प्रसंग में ग्रन्थकारने यूका और लिक्षा को यथावस्थित संस्कृत शब्दोंसे ही परन्तु सावा को सावा : सावका: इन रूपो में यथावस्थित गुजराती शब्दों को ही: संस्कृत रूप देकर प्रयोग किया है । यह भी ग्रन्थकारके गुजरात प्रान्त के निवासी होना प्रमाणित करता है । का निर्देश विशेष विचारणीय है । " षट्पदी" नामक जन्तुके उदरमें जाने से जलोदर रोगकी उत्पत्ति For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "षटपदी" शब्दका सामान्य मक्खी अर्थ न लेकर ग्रन्थकारने यहां षट्पदी शब्दका "जू” नामक अर्थ लिया है । मनुष्योंके उदरमें शिरःस्थ कृमिके प्रवेशसे जलोदर रोगकी प्राप्ति लोककल्पनाओं में प्रचलित है और इसीका अनुसरण मात्र ही यहां किया गया है । अन्य किसी प्रकार के अनुभव अथवा चिकित्सापरम्पराका समर्थन इस कल्पनाको प्राप्त नहीं है । उदरस्थ कृमिका उल्लेख जान्तव विषके प्रसंगमें देकर इसकी चिकित्साके लिए घृष्ट कुपील के पानका निर्देश भी विशेष रूपसे विचारणीय है। पंचतंत्रकी एक कथामें उदरस्थ सर्पके निर्मूलन के लिए विषतिन्दुककार के प्रयोगका निर्देश है, परंतु निघंटुओं में कुपीलु का कृमिघ्न के रूपमें उल्लेख प्राप्त नहीं है। सर्व प्रकारके विषोंके पथ्य वर्णन के समय धी, दूध, मधु, शर्करा भात, आदि स्निग्ध ओजोवर्धक भोजनको पथ्य तथा तेल. अम्ल, और निद्रा को अपथ्य कहा है । परंतु कुत्तेके विषमें रूम भोजन, तेल और पलांडको पथ्य माना गया है, यह भी विशेष विचार योग्य है । यहां लोक प्रचलित प्रथाका अनुसरण किया गया है ऐसा ही प्रतीत होता है । विषके प्रध्यमें माहिष शकत और गार्दभशकत को किस आधार पर पथ्य और किस प्रकार प्रयोग योग्य माना गया है यह भी स्पष्ट नहीं किया गया है । मुखस्य अमृत (यूक) से दंश स्थानको लिप्त करने से तत्काल दंश के निविष होनेका विधान भी इसी प्रकारकी लोक प्रचलित मान्यताका ही प्रतिविम्ब है। For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षुद्रजन्तुके दंश से उत्पन्न शोथ में प्रातः काल निद्रोत्थित अवस्थाका प्रथम थूक लेपन करनेंसे दंशके निर्विष होनेका प्रचार आज भी ग्राम्यजनमें देखने में आता है । योगशास्त्र में वर्णित खेचरी मुद्रा सिद्ध होने पर शिरः कुहर से होने वाला अमृतस्त्राव योगीका परमपुष्टि और तुष्टि देने वाला माना गया है । यह एक विशिष्ट प्रकारको योग सम्बन्धी क्रिया विशिष्ट स्थिति प्राप्त जिह्वा से ही होती है । इसको सामान्य रूपमें जिह्वाके तालुस्पर्श से होने वाले लालास्रावसे अमृत प्राप्ति या इसके लाभोंके रूपमें वर्णन करना कटिन है । पंचम समुद्देश इस ग्रन्थके पञ्चम और अन्तिम समुद्देशमें वर्णन योग्य विषयको दो विभागों में विभक्त किया गया है (१) धातु - उपधातुओं का शोधन और मारण ( २ ) रोगानुसार औषधानुपान । शोधन अन्य ग्रन्थोंमें तेल, तक, आदि जिन पांच द्रव्योंका शोधनके लिए उपयोग दिया गया है उनमें प्रथम द्रव्य तेलको छोड़कर इस ग्रन्थ में प्रथम त्रिफला क्वाथ को लिया गया है । अन्य ग्रन्थो में तैलसे प्रारंभ करके अन्तिम शोधन कुलत्थक्वाथ प्रत्येक में सात वार तपा कर निर्वापसे करनेका विधान है जबकि अनुपान मंजरीकारने यहां गोमू से प्रारंभ कर काजीको द्वितीय स्थानमें रखते हैं । कुलत्थक्वाथ तृतीय और तत्र तथा अन्तमें त्रिफला क्वाथ में पुन: पुनः तपाकर निर्वाण करनेका विधान किया है । For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्यत्र सात सातवार निर्वाप करनेका विधान किया गयाहै परंतु यहां इस ग्रन्थ में निर्वाप सम्बन्धी किसी निश्चित संख्याका निर्देश नहीं है । जारण अन्यत्र प्रसिद्ध जारण क्रिया के निर्देशके बिना ही सीधे ही शोधन के मनन्तर मारणका ही उल्लेख किया गया है । मारण लोहका ३ गजपुटमें मण्डस्के १ मजपुट में तत्क्षण मारण के निर्देशको विका दास्पद और प्रायोगिक परीक्षाको अनन्तर ही स्वीकार योग्य मानना चाहिये । बंग ओर नागकी श्वेत भस्मका निर्देश किया गया है। इनका मारण दो उपलों के पुट से ही बताया गया है। बंग के लिए शुष्क निम्ब पत्र के गोले के मध्यमें रख कर तथा सीसे को अपामार्गके शुष्कपत्रके गोले के मध्य में रखकर दो उपलों के पुट ही भस्म बननेका निर्देश अत्यन्त सरल होने परभी प्रायोगिक परीक्षणके अनन्तर ही स्वीकार योग्य मानना चाहिये । यशदको लोहेकी कडाही में डालकर एक प्रहर पर्यन्त त्रुटी (इलायची) के चूर्णके साथ अग्नि देनेका विधान आधुनिक कालके जारणके समान ही है । याधुनिक कालमें जारणके अनन्तर मारण अवश्य करनेका आदेश है परंतु इस ग्रन्थमें कडाहीमें ही भरम बननेका सर्वथा नवीन प्रकार ही प्रदर्शित किया गया है। इस ग्रन्थ चें. उत्थापन विषयक वर्णनमें मिश्रपंचकमें से गुड और गुंजा को छोडकर घृत-माक्षिक-टंकण इन तीन द्रव्योंके साथ मर्दन करके तीव्र For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अग्निसे धमन करनेका परिणाम-मृतधातुश्चजीवति -इस वाक्यसे धातुके पुन-- र्जीवन या पुनरुत्थान का विधान किया गया है । यह निरुत्थ या अपुनर्भव के पारम्परिक विधानसे सर्वथा विरुद्ध अथवा अश्रुतपूर्व प्रकार है । मृतधातु (शुद्धभस्म) बनने पर उसका उक्त द्रव्यके साथ धमन करने पर भी पुन:धातुभाव या जीवन नहीं होता । अत एव निरुत्थ या अपुनर्भव कहा जाता है और इसके पुनर्जीवित होनेको उत्थान कहा जाता है । यदि धातु पूर्णरूपसे मृत नहीं है तो जीवित है और अत एव औषधकर्म के लिए अयोग्य है ऐसी रसशास्त्र की परंपरा है। इस पूर्व परंपरासे सर्वथा विपरीत धातुके पुनर्जीवनका प्रदर्शन आचार्यश्री विश्रामके स्वयंका भ्रम-लेखदोष अथवा पाठ भेद का प्रमाण है। इसके अनन्तर पारद अभ्रक और हरितालके मारणके विषय में भी आचार्यश्री विश्राम ने कुछ अपना ही स्वतंत्र प्रकार प्रदर्शित किया है । पारदमें सात कंचुलिका (कंचुक)दोषका अस्तित्व वह मानते हैं और संस्कार हीन पारद सेवनसे कुष्ठादि विविध रोग तथा मृत्यु होने का भी मानते हैं । परन्तु केवल कुमारीरसके साथ मर्दन करने से इन कंचुक दोषों की निवृत्ति का वर्णन किया है । इस क्रिया मर्दन क्रियाकी आवृत्ति और कालमर्यादा आदिके प्रमाण या संख्याका निर्देश नहीं है । इस ग्रन्थमें पारदकै षड् या षोडश संस्कारमें से केवल मर्दन संस्कार और वह भी केवल कुमारीस्वरसके साथ करनेसे ही पारदशुद्धि का कथन अतिशयोक्ति पूर्ण है । तदनन्तर मारणके लिए लोह पात्र में गन्धकके साथ अर्धघटीका पर्यन्त तीव्र अग्निसे गर्दन करनेसे सूत भस्म बनती है और इससे आश्चर्यकारक लौहनिया For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (लोहसिद्धि) और व्याधिनाशन तथा रसायन प्रभाव ( देहसिद्धि ) होता है इस प्रकार साधिकार कथन का आधार उनका अपना अनुभव होने पर भी विशिष्ट विश्वजनोंके परीक्षा और प्रायोगिकके अनन्तर ही स्वीकार योग्य है । वस्तुतः उक्त वर्णन बलिजारणके साथ समान है किन्तु बलि जारित पारद का भी कज्जली सिन्दूर आदिके रूपमें ही व्याधि नाशनके लिये परम्परासे सिद्ध है इस ग्रन्थ में निर्दिष्ट प्रकार सर्बथा नवीन है । • अभ्रकका भी कोई स्वतंत्र शोधन धान्याधीकरण आदि न देकर केवल अकंक्षीर में मर्दन करके चक्रिका बनाकर अर्कपत्र में लपेट कर सातवार गजपुट देनेसे ही भस्म बनने का कथन किया गया है । हरिताल की भस्म बनाने के विधिको विशेषता यह है कि यह भस्म श्वेत वर्णकी और मूल द्रव्यसे १/८ मात्रा में बनती है । इस भस्मकी औषध रूपमें माया भी २ चावल १/३ रत्ती बताई गई है । भस्मविधि के लिए हर ताल और पिप्पली चूर्ण एक कपडेकी पोटली में बांधकर तैल, चूनेका पानी, शर्करा जल, प्रत्येकमें सात सात दिन रखनेसे शुध्धि होती है । इसके अनन्तर इसको निकालकर धोकर खरलमें साथ ५/धृतके साथ मर्दन करना इसके अनन्तर दुग्ध, मधु और शर्करा प्रत्येकके साथ मर्दनकर चक्रिका बनानी चाहिये । इसके अनन्तर अर्कपत्र उपर नीचे संपुटके रूपमें रखकर गजपुट देनेका विधान किया है । इसके अनन्तर मृत्तिका कपालमें रखकर अग्नि देनेसे श्वेत भस्म बनने का निर्देश किया गया है। For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गजपुट की अग्नि तीव्र होती है और यह अग्नि अधिक कालस्थायी है । हरतालका इस प्रकारके अग्निपर भी स्थिर रहना विशेष विचारणीय है । इस लिए यह विषय रसशास्त्राके योग्य परीक्षणके अनन्तर ही स्वीकार योग्य माना जाना चाहिये । मृत हरितालके गुणवर्णनके आधार रूप श्लोक शब्दशः रसरत्नसमुच्चयके ही उद्धृत किये गये हैं। अनुपान सम्बन्धी विषय वर्णनके समय विविध रोगोंमें प्रधान औषध को रोगानुसार योग्य अनुपानके साथ देने के विधानके साथ शूल, ज्वर, वात, श्वास, शीतरोग, मेह, त्रिदोष, आदिमे एक एक विशिष्ट द्रव्यके अनुपानका वर्णन वाग्भटके अन्तिम अध्यायमें निर्दिष्ट रोगानुसार अनुपान का छन्दोभेद और शब्दभेदसे अर्थशः अनुकरण ही है । इस ग्रंथमें तक्रमेह, · श्वसनक, शीतरोग, आखुपतिजनित ग्रंथि, अंगनामदनमेह ( योनिमेह) आदि रोगोंके नवीन प्रकारोंका वर्णन किया गया प्रसिद्ध संहिता ग्रन्थोंमें प्रमेहके वीस प्रकारोंके तक्रमेह नामका संकेत नहीं है । उत्तरकालीन बंगसेनमें इसके प्रचारका प्रारंभ द्रष्टिगोचर होता है । इस ग्रंथ में अंगनामदनमेह और इसी ग्रन्थकारके अन्य व्याधिनिग्रह नामक ग्रन्थ में योनिमेह नाम प्रसिद्ध श्वेतप्रदरके लिए इस ग्रन्थकारके द्वारा निर्मित नवीन शब्द है । प्रदरशब्दसे सामान्य रूपमें रक्तप्रदर और श्वेतनावके लिए प्राचीन रान्थोंमें श्लेष्मला, उपप्लुता आदि योनिभेदके द्वारा होता है । प्रस्तुत For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रन्थकार के द्वारा स्थानगत मेह के कथन के लिए अंगनामदनमेह और योनिमेह आदि शब्दोंका प्रयोग इसकी अपनी कल्पनाशीलताका परिचायक है । श्वसनक शब्द श्वास रोगके ही वाचकके रूपमें अथवा श्वसन सन्नि पात (न्यूमोनिया) के वाचकके रूपमें नवीन शब्द निर्माण है यह भी एक प्रश्न है । मधुके साथ त्रिकटुका अनुपान दोनों परिस्थितियों में उचित है । शीतरोग - शीतांग या अतिस्वेदसे अंगों के ठंडे पड़ जाने की अवस्था का निर्देश और इस अवस्थामें तत्काल उष्णता लाने के हेतु उत्तेजक ताम्बूल पत्रको मरिच चूर्णके साथ अनुपान के रुपमें प्रयोग उचित प्रतीत होता है । इस प्रकार इस विवरणसे यह पंचम समुद्देश रसतंग तथा कायचिकित्सा के अनुसंधानकर्तामों के लिए पर्याप्त ऊहापोह और नवीन अनुसंधान के लिए कार्यक्षेत्र प्रस्तुत करता है । अनुपान शब्द ( शास्त्रीय अर्थ ) अनुपान शब्द से बहायी सम्मत परिभाषा के अनुसार यदाहारगुणैः पानं विपरीतं तदिष्यते । अन्नानुपानं धातूनां दृष्टं यन्न विरोधि च ॥ च. सू.अ. २७-३२९ यहां अनुपान शब्द अन्नानुपानके लिए हैं जो आहारके उपरांत पान किया जाने वाला एव पदार्थ जो उस भुक्त अन्नको पचाने में सहायक और उसके अभीष्ट गुणको सरलतासे प्राप्त कराने वाले और विरोधी गुणको विफल For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करने वाले शरीरोपकारक द्रव्य के लिए प्रयुक्त किया गया है। ___ इसी प्रकार औषध के सहायक बनकर उसके अभीष्ट गुणको परिवद्धित करने वाला तथा विरोधी गुणको अपरुद्ध करनेवाला द्रव पदार्थभी औषध अथवा भेषजानुपान कहा जा सकता है । मधु, धृत, तैल, ये तीनों द्रव्य तीन दोषोंके औषधोंके लिए सर्व सम्मत अनुपान प्राचीन कालसे व्यवहृत केवल जल अन्न और औषधका स्वभाव सिद्ध अनुपान है। वैद्य परंपरामें द्रव्यके अपेक्षित गुणके अनुरुप दूध, मधु स्वरस कपाय आदि भी अनुपानके रुपमें प्रयुक्त होते हैं । रसतरंगिणीकारने ६ तरंग श्लोक १९९-२०२ सहपान तथा अनुपान इस रूपमें सूक्ष्म द्रष्टिसे दो भेद किये हैं। यह विशेष अवधेय है । इन दोनोंसे भेषजका, 'उपबृंहण' कार्य शक्तिकी वृद्धिका वर्णन करते हुए सह पानसे भेषजके सूक्ष्म कण जिस द्रव्यके साथ मिलकर शरीरमें शीघ्र प्रसारित हों वह सहपान तथा मुख्य औषध के सहायकके रूपमें रोगहरण समर्थ विशिष्ट औषधका द्रवरूपमे स्वरस कथ, आसव, अरिष्ट, क्षीर प्रादि रूपम उपरसे पृथक् रुपमे पान किया जाय जिससे रोगहरण शीघ्र और सरल हो सके उसको अनुपान शब्दसे व्यवहृत किया जाता है । __ अनुपानकी मुख्य विशेषताको प्रदर्शित करते हुए अग्निवेश महर्षिने आहारगुणोंसे विपरीत किन्तु विशेषकर धातुओं के लिए अविरुद्ध द्रव्य अनुपान कहा जाता है । इससे उस द्रव्यके पाचनमें और शरीर में शीघ्रता पूर्वक प्रसार For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org होने में सहायता होती है तथा उस द्रव्यका परिणाम सुख कर ही होता है और अनिष्ट परिणामोंका वारण होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुपान मंजरीकार की द्रष्टिमें भी अनुपान शब्द चरक सुश्रुत तथा रसशास्त्र की परंपरा के अनुसार ही अर्थवाचक के रूपमें ही पंचम समुद्देशमें शुद्ध मारित घातुओं के विविध रोगों में प्रयोगकें समय विविध कषायोंके रूपमें उल्लिखित किया है । इसके उपरांत भी इस ग्रन्थकारकी प्रारंभिक प्रतिज्ञा श्लोक मे अशुद्ध धातू - उपधातु जनित अथवा स्थावर जंगम विषके फल स्वरूप उत्पन्न विकारोंके शमनार्थ प्रस्तुत विविध योग भी अनुपान शब्द वाच्य है । इस प्रकार इस ग्रन्थकारने अनुपान शब्दका व्यापक अर्थ में प्रयोग किया है । अनुपानमंजरीमे उपमा इस अनुपान मंजरीकारने औषधियोगोंकी प्रशस्ति के लिए कुछ उपमाओंका निर्देश इस प्रकार किया है । यथा भानूदये तम: १/४ तमः सूर्योदये यथा । व्याधिनिग्रह ११९ तमः चन्द्रोदये यथा । १/८ तिमिरं साधुसंगमान् १ / ९ पातकं गुरुवन्दनात् । १/१५ स्नानाद्देहमलं यथा । १/१२ For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar इस प्रकार धातु जनित विकार और स्थावर जंगम विष विकारों के शमनार्थ प्रयुक्त प्रौषध से प्राप्त होने वाली शान्तिको उपरिवर्णित रूपमें उपमा द्वारा प्रशंसित किया है । इससे अनुपान मंजरीकारका साहित्य सेवी और संवेदना प्राप्त सहृदय कवि होना समर्थित होता है । अनुपानमंजरी हस्तप्रत - अनुपान मंजरी की छ : हस्त प्रत और एक जीरोकस कापी इस प्रकार सात प्रतियां हमें प्राप्त हुई हैं। इन प्रतियोंमें चार हस्तलिखित प्रतियां गुलाबकुंवरबा आयुर्वेद सोसायटी जामनगर के संग्रहालयसे और दो प्रति गोंडल के सरकार द्वारा प्राप्त हस्त लिखित पुस्तक के संग्रह से प्राप्त हुई हैं। इस प्रकार छ हस्त प्रत हमारे विभागको प्राप्त होने के उपरांत एक जीरोकस कापी इंडिया आफिस लायब्रेरी लंदन से मंगवाई गई । इस प्रकार इस अनुपान मंजरी के प्रकाशन कार्य की सहायताके लिए सात पुस्तकों का संग्रह किया गया। इन सात पुस्तकों को" क" से" ज" तक नाम दिया गया है । इन सातों पुस्तकोंका क्रमशः विस्तृत परिचय आगे देंगे । गोंडलसे प्राप्त दो हस्त प्रतमें एक अपूर्ण है। इस प्रतिमें दो समुद्देशही प्राप्त होते हैं । एक प्रति लिपिकार, लेखक, लेखन काल आदिके निर्देश के साथ सर्वाग संपूर्ण सुवाच्य अक्षरों से युक्त होने से आदर्श प्रति के रूपमें क पुस्तकके नामसे स्वीकृत की गई है । अपूर्ण हस्त प्रतको ख-नामसे संकेतित किया गया है। For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुलाबकुंवरचा आयुर्वेद सोसायटी जामनगर के संग्रह से प्राप्त चार हस्त प्रति में दो हस्त प्रति मूल पुस्तक के प्राचीन अनुलेखन के रूप में प्राप्त हुई है । इनमें एक कच्छ निवासी गुरुजी श्री पू. मूलजी लालजी चेला द्वारा संवत १८६१ के आषाढ शुक्ल ५ गुरुवारके तिथि समय निर्देश के साथ देवनागरी लिपिमें अनुलेखन की गई है । इस प्रातको ग नाम से संकेतित किया गया है । ध के रूपमें संकेतित हस्तप्रति गुलाबकुंवरबा आयुर्वेद सोसायटी जामनगर से प्राप्त दूसरी प्रति है । यह प्रति देवनागरी लिपिमें संपूर्ण रूपमें प्राप्त है । इस प्रति की विशेषता यह है कि इसमें मूल ग्रन्थ का गुजराती भाषा अनुवाद भी प्रत्येक पद्य के साथ दिया गया है । च और छ पुस्तक के रूपमें संकेतित प्रति गुलाब कुंवरबा आयुर्वेद सोसायटी जामनगरकी स्थापना के अनन्तर सोसायटी के ही कर्मचारी श्री व्रजमोहनप्रसाद वैद्यराज तथा श्री जन्मशंकर शुक्लके द्वारा सन १९४३ के आसपास घ प्रतिका अनुलेख मात्र ही है । ज पुस्तक के नामसे संकेतित प्रति पुआड श्री गुरुनाथरावकी अनुमति से मद्रास बाविल्ल रामस्वामी एन्ड सन्स मुद्रणालय के द्वारा प्रांध्र भाषामें भाषान्तर के साथ वी रामस्वामी शास्त्रलु एन्ड सन्स के तत्वावधान में सन १९१५ में मद्रास में तेलुगु लिपिमें मुद्रित और इन्डिया आफिस लायब्रेरी लंदन में सुरक्षित प्रतिकी जीरोक्स कापीके रूपमें हमारे विभाग द्वारा प्राप्तः की गई है । ग्रंथकर्ता. ग्रंथरचना काल और स्थान आदिका संकेत देनेवाले अन्य For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतियोंमें प्राप्त श्लोक इस प्रतिमें प्राप्त नहीं होते हैं । इस प्रकार क से ज पर्यन्त संकेतित हस्त प्रतियोंका सामान्य विवरण दिया गया है । इन सभी प्रतियोंका विशेष विवरण प्राप्त पुष्पिकाओंके साथ मागे दिया जा रहा है । (क) १, GON. १, प्रति - संपूर्ण पृष्ठ - १२, प्रतिपृष्ठ पंक्ति - ९ - २९ अक्षर प्रायः परिमाण – ४" x ८" १०'७ से. मी. x २०.५ से. मी. लिपि - देवनागरी भाषा - संस्कृत लिपिकार -बाडी कालीदासस्य आत्मजः मगन लिपिकरणकाल - आश्विन कृष्णपक्ष संवत् १८६१ (ख) २, GON. २, प्रति - खण्डित पृष्ठ - ४ प्रतिपृष्ठ पंक्ति ५. परिमाण ३३" x १०" ९ मे. मी. x २४.५ से. मी. लिपि देवनागरी भाषा संस्कृत लिपिकार अनिर्दिष्ट (ग) ३, GAS ३, प्रति संपूर्ण पृष्ठ १०, प्रतिपृष्ठ - पंक्ति ८ अक्षर ३६. परिमाण - ४:" x १०." लिपि - देवनागरी भाषा संस्कृत लिपिकार - गुरुजी श्री पू. मूलजी लालजी चेला लिपिकरणकाल - १८६१ वर्षे आषाढ शुद ५ गुरौ For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (घ) ४ ५ (छ) ६ www.kobatirth.org ३४ GAS Y प्रति संपूर्ण पृष्ट १२ प्रतिपुष्ट पंक्ति ७ अक्षर ३१ परिमाण - ५ " x ११।" लिपि देवनागरी भाषा संस्कृत ( गुजराती अनुवादयुक्त ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir GAS ५ प्रति संपूर्ण पृष्ठ - १५ प्रतिपष्ठ - पंक्ति ६ अक्षर ३० परिमाण ४३ × ११" लिपि - देवनागरी भाषा संस्कृत ( गुजराती अनुवादयुक्त ) लिपिकार शुक्ल जन्मशंकर हरिशंकर जामनगर GAS ६ प्रति संपूर्ण पृष्ठ १२ प्रतिपृष्ठ पंक्ति १३ अक्षर ३७ परिमाण ५ " × ११ " लिपि देवनागरी भाषा संस्कृत ( गुजराती अनुवादयुक्त ) लिपिकार राजवैद्य व्रजमोहनप्रसाद आयुर्वेदशास्त्री लिपिकाल २२-७-४३. प्रति संपूर्ण इन्डिया हाउस लायब्रेरी जीरोक्स प्रति (क) पुष्पिकासंग्रह प्रत्येक हस्तप्रतके प्रारंभ और अंतमें प्राप्त होनेवाले मंगलाचरण और उपसंहारका निर्देश करनेवाले संदर्भका विवरण यहां प्रस्तुत है । ( क ) ग्रन्थ प्रारंभ :- श्री गणेशाय नमः । श्रथ अनुपान मंजरी प्रारंभः । For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अन्य समाप्ति - इति श्री अनुपान मंजर्या धातृपधातु मारण रोगा नुपान सहितं पंचमोपदेशः संवदष्टादशे वर्षे नाग चाधिकेष्टिके आश्वनाया परे पक्षे अद्रिशूरसंज्ञिके ।। इति समानः ।। लें. त्रवाडी काशीरामस्य आत्मज मगन आत्मपठनार्थ । श्रीरस्तु श्री कल्याणमस्तु । (ख) ग्रन्थ 'प्रारंभ ग्रन्थसमाप्ति श्री गणेशाय नमः । समुद्देश २ श्लोक-१५ पर्यन्त प्रायः अपूर्ण (ग) अन्य प्रारंभ:- श्री गणेशाय नमः । श्री धन्वन्तरिये नमः । ग्रन्थ समाप्ति :- इति श्री अनुपान मंजर्या धातूपधातुमारणं रोगा नुपान प्रकर्ण नाम पञ्चम समुद्देशः ॥५॥ संवत् १८६१ वर्षे आषाढ शुद ५ गुरौ।। गुरुजी श्री पू. लालजी चेला मूलजी पठनार्थ लेखक पाठकयोः शुभं भूयात् ।।श्री॥ ग्रन्थ प्रारंभ: श्री गौतमाय नमः । श्री गुरुभ्यो नमः । श्री धन्वन्त राय नमः। ग्रथि समाप्ति :- इति श्री अनुपान मंजर्या धातुउपधातु मारणं रोगानुपान प्रकर्ण' नाम पञ्चमा समुद्देशः ॥ इति अनुपान मंजरी संपूर्णा ।। (च-छ) (च-छ) प्रति (घ) पुस्तक का अनुलेखन मात्र ही है। (ज) ग्रन्थ के प्रारंभ में नमः आदि और ग्रन्थ समाप्ति के समय, लिपिकार, For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan लिपिकाल आदिका निर्देश नहीं है । यह ग्रन्थ इण्डिया आफिस लायबरी लंदन से जीरोक्स कापीमे प्राप्त किया गया है । इस प्रकार हमारे विभागको प्राप्त हस्त प्रति विवरण प्रस्तुत है। इन प्रतियोंमें प्रथम क- नामसे संकेतित प्रतिको आदर्श मान कर अनिवार्य आवश्यक परिवर्तनके साथ यथावस्थित रूपमें मुद्रित करनेका प्रयत्न किया गया है । इस क- प्रतिको आदर्श माननेसे इस प्रतिमें अनुपलब्ध और अन्य प्रतियोमे' समुपलब्ध पाठको गोलाभिवार के चिह्नमें अंकित कर मुद्रित किया गया है और इस अधिक पाठको भी मूल पाठके ही समान अनूदित किया गया है । मुल प्रतिको क नामसे निर्दिष्ट किया है, और अन्य छ प्रतियों को ख, ग, घ, च, छ, ज, इस प्रकार संकेतित किया गया है। इन सात प्रति यों में क प्रति को आदर्श मान कर अन्य प्रतियों के साथ अधिक अथवा अल्प पाठ भेद का प्रति पृष्ठ निर्देश किया है। इस विवरण के अनुसार हस्त लिखित प्रतियों के क्रमनिधारणके अनन्तर भनुपान मंजरी नामक ग्रन्थ को मुद्रित किया गया है। अ पुस्तक विशेष विवरण श्री कृष्णगोपाल आयुर्वेद भवन द्वारा प्रकाशित स्वास्थ्य नामक मासिक के अक्तूबर १९७० के अंकमें श्री कविराज राजेन्द्रप्रकाश आ-भटनागरके अनुपानमंजरी के विषय में एक लेख प्रकाशित हुआ है। इस लेख में अनुपानमंजरीकी उदयपुर स्थित प्रति सं. १४७२ के अनुसार एक विवरण दिया For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उदयपुर स्थित समुद्देश ३७ गया है इस विवरण के साथ हमारे विभाग द्वारा प्रकाशित इस प्रस्तुत अनुपान मंजरीका विवरण दिया जाता है जिससे विज्ञ पाठकोंका कुछ लाभ होगा । ६ C १ (अ) पुस्तक समुद्देश १ २ ३ ૪ 1 ३ g or l www.kobatirth.org - अनुपान मंजरी प्रति श्लोक संख्या १६ २२ ३२ ३६ ३४ ८ १५१ श्लोक संख्या १५ २१ २४ • ३३ १२० २५ १० २४ २७५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तुत प्रकाशन समुद्देश श्लोक संख्या १ For Private And Personal Use Only ३ I १६ २२ १९ प्र ૪ १३५ इस प्रकार ( ज ) पुस्तक में सर्वाधिक आठ प्रकरण और सर्वाधिक २७५ श्लोक संग्रह हैं । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रकाशनके समय (ज) पुस्तकके नामसे संकेतित प्रति इन्डिया प्राफिस लायब्रेरी लन्दनसे दीर्घकाल पर्यन्त के पत्रव्यवहार और कठिन परिमसे जीरोक्स कापी के रूपमें प्राप्त की गई है। ___ यह प्रति बा. रामस्वामी शालुलु एन्ड सन्स मद्रास द्वारा सन १९१५ में तेलुगु अनुवादके साथ तेलुगुलिपिमें ही संस्कृत पाठ के साथ सर्वप्रथम मुद्रित की गई है । इसी प्रतिको इन्डिया आफिस लायब्रेरी में सुरिक्षत रखा गया है और इसीकी जीरोक्स कापी हमारे विभागको प्राप्त हुई है । हमारे विभागको प्राप्त तेलगुलिपिकी इस पुस्तकको हमारे यहां के C. C. R. I. M. H. के साहित्य संशोधन विभागके सहयोगी कार्यकर्ता श्री प्रताप रेड्डी ने देवनागरी में परिवर्तित कर देनेसे इस प्रकाशनमें पर्याप्त सहायता मिली है । इस ज पुस्तकसे यह एक बात जानने योग्य है कि जिस पुस्तकको गुजरातमें २०० वर्ष पर्यन्त मुद्रित होनेका अवसर प्राप्त नहीं हुमा वह. पुस्तक तेलुगु लिपिमें सम्पूर्ण रूपमे मुद्रित हुई है । इस प्रतिको देखनेसे यह भी प्रतीत होता है कि मूल पुस्तकसे इस प्रतिमे पर्याप्त परिवर्तन हुआ है । गुजरातके लेखक की प्रतिका मद्रासमें जा कर परिवर्तित रूपमें मुड़ित हाना इन दोनों प्रान्तों के पारस्परिक सांस्कृतिक सम्बन्ध और दोनों प्रान्तोंके विद्वानोंकी पारस्परिक गुणग्राहिताका परिचायक है । मद्रास की प्रतिमें भाषा तथा लिपि भेद होने पर भी चोक्खम, सन्देसरा, सावा, पटसन ग्रादि गुजराती शब्दोंको यथा वस्थित रूपमें रखकर यथार्था में ही गुणज्ञत्ताका प्रदर्शन किया गया है। For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस ज प्रति में प्रकरण संख्या आठ और श्लोक संख्या २७५ है जो सर्वाधिक है। ___ ज - प्रतिमें पिगविकारशान्ति और मल्लविकारशान्तिके कुछ श्लोक महीं है । ज- प्रतिके तुतीय प्रकरण के ३, ५, ६ श्लोक यहांकी प्रस्तुत पुस्तक की टिप्पणी में है। श्लोक ११, १२, यहाकी प्रतिमें नहीं हैं। ज -- प्रतिके चतुर्थ प्रकरणमें यहांको प्रस्तुत प्रतिके १, १२, २५, २६ और ३० ये पांच श्लोक नहीं है। ज- प्रतिके पञ्चम प्रकरणमें एक मात्र प्रतिज्ञा अथातः संप्रवक्ष्यामि धातूपधातुमारणम् । रोगाणामनुपानं च संक्षेपात्कथ्यतेऽधुना ।। १ इस श्लोक को छोड कर यहां की प्रस्तुत प्रति के साथ कुछ भी समान नहीं है। पञ्चम प्रकरणमें प्रदर्शित धातु, उपधातु के शोधन मारण के वर्णन प्रकार यहां की प्रस्तुत प्रति से सर्वथा भिन्न है । ___ज - प्रतिके छठे प्रकरण में उपधातु शोधन मारण सम्बन्धी विवरण दिया गया है । यह विवरण यहांकी प्रस्तुत प्रति के पञ्चम प्रकरणसें सर्वथा भिन्न है। ज - प्रतिके सातवें प्रकरणमें पथ्यापथ्यके नव श्लोक दिये गये हैं । इन श्लोका उल्लेख यहाँकी प्रस्तुत प्रति के पांचवें प्रकरणमे किया गया है। For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ache ज - पतिका आठवां प्रकरण परिभाषा प्रकरण है। इस प्रकरणमे मगधमान, कलिंगमान आदिका वर्णन किया गया है। इस विषय का उल्लेख महांकी प्रस्तुत प्रतितमें नहीं है । इस प्रतितका आठवां प्रकरण भावप्रकाशके मान सम्बन्धी परिभाषा प्रकरणके साथ शब्द - अर्थ - और क्रमसे इतना समान है कि सीधा भावपकाशसे ही उद्त किया जाना समर्थित किया जा सकता है । प्रस्तुत प्रकाशनके अन्त में १ से ८ परिशिष्टोमे खनिज, प्राणिज औद्भिद द्रव्य, तथा अन्य द्रव्य, स्थावर और अंगम विष, धातु उपधातुकी रसशास्त्रीय परिभाषा विकारशमनार्थ अनुपान, और विविध रोग और अनुपान आद विषयोंको स्पष्ट करनेके हेतु विस्तृत तालिकाएं दे दी गई हैं । इससे पाठकोंका मूल ग्रन्थके आशय समझनेमें सहायता होनेकी आशा है । .... इस प्रकार यथा शक्य विस्तृत विवरणके साथ यह अनुपान मंजरी नामक पुस्तक आयुर्वेदके विशिष्ट विद्वान और अनुसंधान कार्यमें संलग्न परिश्रमशील विचारकोंके समक्ष मुद्रित रूपमें प्रस्तुत करते हुए हम परम सुख और संतोषका अनुभव करते हैं। स्वातंत्र्य रजतोत्सव १५-८-७२ जामनगर. वि. ज. ठाकर, अध्यक्ष साहित्य संशोधन विभाग (मौलिक सिद्धान्त ) गुजरात आयुर्वेद मुनिवर्सिटी जामनगर. For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषयानुक्रमः क्रमः विषयः पृष्ठसंख्या प्रथमः समुद्देशः . मंगलाचरणम् २ ग्रन्थप्रयोजनवर्णनम् ३ सुवर्णविकारशान्तिः ४ रौप्यविकारशान्तिः ५ ताम्रविकारशान्तिः ६ मागविकारशान्तिः ५ बंगविकारशान्तिः ८ मारविकारशान्तिः ९ त्रिधातुविकारशान्तिः १. अयोविकारशान्तिः १, मण्रविकारशान्तिः १२ कृपाणिकालोहविकारशान्तिः १३ पिंगविकारशान्तिः १४ घोषविकारशान्तिः द्वितीयः समुद्देशः १५. मलसंयुक्तपारदविकारशान्ति १६ सूतविकारशान्तिः For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - क्रमः विषयः पृष्ठसंख्या १.-११ १७ तालविकारशान्तिः १८ मनःशिलाविकारशान्तिः १९ बलिविकारशान्तिः २० अभ्रकविकारशान्तिः २१ माक्षि विकारशान्तिः २२ शिलाजतविकारशान्तिः २३ मल्लविकारशान्तिः २४ रसकर्पूरविकारशान्तिः २५ तुत्थकविकारशान्तिः २६ मृदासंगविकारशान्तिः २७ नवसार-मति-गरिक-कासीस-काच-तौरी-विकारशान्तिः २८ मुक्ता-प्रवाल-हीरकविकारशान्तिः ११ ११ ११-१२ १२ १३-१४ तृतीयः समुद्देशः २९ नागफेनविकारशान्तिः ३. धत्तूरविकारशान्तिः ३१ वत्सनाभविकारशान्तिः १२ भल्लातकविकारशान्तिः ३३ भंगाविकारशान्तिः ३४ उच्चटाविकारशान्तिः ३५ मद्यविकारशान्तिः १४-१५ १५ १५-१६ For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रमः विषयः पृष्ठसंख्या १६-१७ १७ ३६ पूगीफलविकारशान्तिः ३७ कोद्रवविकारशान्तिः ३८ कर्णवीरविकारशान्तिः ३९ वजिविकारशान्तिः ४० स्नुह्यविकारशान्तिः ४१ दन्तीबीजविकारशान्तिः ४२ कोचकविकारशान्तिः ४३ लूकरोगशान्तिः ४४ शीतलादाहशान्तिः १७-१८ २०-२१ २२-२३ २३-२४ चतुर्थः समुद्देशः ४५ पन्नवकारशान्तिः ४६ श्वानविषविकारशान्तिः ४७ उमरगतदुष्टजन्तुविकारशान्तिः ४८ वृश्चिकविषशान्तिः ४९ गृहगोधिकाविषशान्तिः ५० सरठविषशान्तिः ५१ मूषकविषशान्तिः ५२ श्वेतमूषकविषशान्तिः ५३ सिंहबालविषशान्तिः ५४ भ्रामरीमक्षिकाविषशान्तिः २४ २४ २४-२५ २५ For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - कम . विषयः पृष्ठसंख्या ५५ कर्णप्रविष्टखर्जूरडंकदूरीकरणोपायः ५६ दंशनिर्विषीकरणम् ५७ - छछन्दरविषशान्तिः ५८ जलविकारशान्तिः ५९ मत्कुणदूरीकरणोपायः ६. मूषकादीनां निःसारणोपायः ६१ यूकाधिनाशोपायः ६२ यूका-लिक्षा-सावाविनाशनोपाय: ६३ जलोदरशान्तिः ६४ सर्वविषपथ्यापथ्यकथनम् ६५ सर्वविष शमनोपायः ६६ ज्ञाताज्ञातविषविकारपथ्यकथनम् ६७ अलके पथ्यनिर्देश: . पञ्चमः समुद्देशः ५८ सप्तलोहसामान्यशोधनम् ६९ शुद्धलोहमण्डूरमारणम् ७. लोहस्य रोगानुसारी सानुपानोपयोगः ७१ लोहप्रंशमा ७२ पुमारणम् ७३ नागमारणम् For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan - - - क्रम विषयः पृष्ठसंख्या - ३४ ७४ नागप्रंशसा ७५ जस्तमारणम् उपयोगश्च ७६ धातूत्थापनविधिः ७७ सूतशोधनमारणे ७८ शुद्धाशुद्धपारदसेवनलाभालाभी ७९ अभ्रकमारणम् . ८. अभ्र कसेवनलाभ : ८१ तालशोधनम् ८२ तालमारणम् ८३ तालप्रशंसा ३५-३६ ३६ ३७-३८ ३८ ३८ ८४ अशुद्धतालसेवनदोषाः ८५ धातूपधातुसेवनकाले पथ्यापथ्यनिर्देश: ८६ अध्यकसंग्रहः ८७ ग्रन्थकर्तुः परिचयः ३९-४० ४१ ४२-४४ ८८ परिशिष्ट-1 अनुपानमंजरीमें निर्दिष्ट खनिज द्रव्योंकी सूची- परिशिष्ट-२ अनुपानमंजरीमें निर्दिष्ट स्थावरजंगमविष सूचिका- ९. परिशिष्ट-३ अनुपानमंजरीमें निर्दिष्ट प्राणिजद्रव्योंकी सूची- ४५-४६ ४७-४८ For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra क्रम ९१ विषयः परिशिष्ट-४ अनुपान मंजरी में निर्दिष्ट अन्य द्रव्योंकी सूची ९२ परिशिष्ट- १ ९३ परिशष्ट-: www.kobatirth.org ९४ परिशिष्ट ७ अनुपान मंजरी में उल्लिखित औदभिदद्रव्य विवरण तालिका ५०-६३ अनुपान मंजरी में धातु और उपधातुके नामसे निर्दिष्ट खनिज द्रव्योंकी रसशास्त्रीय परिभाषा सूची विकारशमनार्थं निर्दिष्ट अनुपान सूची ९५ परिशिष्ट-८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ठसंख्या For Private And Personal Use Only ४९ ६४-७१ ७२-८० अनुपान मंजरी में निर्दिष्ट विविध रोग और अनुपान सूची ८१-८३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ अनुपानमंजरी श्री गणेशाय नमः ॥ अथ अनुपानमंजरी प्रारंभः ॥ प्रथमः समुद्देशः १ मंगलाचरणम् यस्य ज्ञानमयी मूर्तिः सच्चिदानन्दकारिणी । तत्पादपंकजं वन्दे ग्रन्थसंपूर्ति हेतवे ॥१॥ जिसकी ज्ञानमय मूर्ति है और जो सत्, चित् तथा आनन्द स्वरूप है । उसके चरणकमलको ग्रन्थ समाप्तिके लिए मैं प्रणाम करता हूं ॥१॥ २ ग्रन्थप्रयोजनवर्णनम् धातुस्तथोपधातुश्च विषं स्थावरजंगमम् । 'तद्विकारस्य शान्त्यर्थम् वक्ष्येऽनुपानमंजरीम् ॥२॥ . धातु तथा उपधातुके विकारोंकी शांति और स्थावर और जंगम विषके विकारोंकी शांतिके लिए अनुपानमंजरी" नामक ग्रन्थकी रचना करता हूं ॥२॥ १ तस्य विकारशान्त्यर्थ इति ख ग घ च छ पुस्तकेषु पाठः For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपक्वपक्वधातूनां विषं दंष्ट्रिणभक्षणात् । तथोपधातोश्च तद्वत् विकारशान्तिरुच्यते ॥३॥ पक्व तथा अपक्व धातु एवं उपधातुके भक्षणसे उत्पन्न विकारों, विषभक्षण से उत्पन्न विकारों तथा प्राणिके दश आदिसे होनेवाले विकारों की शांतिके उपायोंका वर्णन करता हूं ।।३।। ३ सुवर्णविकारशान्तिः हरीतकी सितायुक्तां यः खादेच्च दिनत्रयम् । तस्य सौवर्णशान्तिः स्यात् यथा भानुदये तमः ॥४॥ जिस प्रकार सूर्यके उदयसे अन्धकारकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकारसे सितायुन हरीतकीका तीन दिन पर्यन्त सेवन करनेसे सुवर्ण विकार की शान्ति होती है ॥४॥ ४ रौप्यविकारशान्तिः शर्करां मधुसंयुक्तां खादयेद्यो दिनत्रयम् । शान्तिर्भवेत् विकारस्य रौप्यस्य नात्र संशयः ॥५॥ मधुयुक्त शर्कराका तीन दिन पर्यन्त सेवन करनेसे रौप्य विकारकी शान्ति होनेमें किसी भी प्रकारके संशयका अवकाश नहीं है ॥५॥ - १ "पक्वापक्वस्य धाताश्च तथा सर्वविषस्य च । सर्वेषां दोषनाशार्थ कथितं शास्त्रदशभिः ।। इति ज पुस्तके अयं पाठः २ मधु चेत् शर्करायुक्तं यः खादति दिनययम् । पक्वापक्वस्य रौप्यस्य शान्तिः भवति निश्चितम् ।। इति ज पुस्तके पाठः For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५. ताम्रविकारशान्तिः 'वनव्रीहि सितायुक्तां जले पिष्ट्वा दिनत्रयम् । यः पिबेत् प्रातरुत्थाय ताम्रशान्तिर्भवेत् ध्रुवम् ॥६॥ शर्करायुक्त वनव्रीहि ( सौंफ) को तीन दिन पर्यन्त जलके साथ पीस कर प्रातः कालमें पान करनेसे ताम्र विकारकी शान्ति होती है ॥६॥ ६ नागविकारशान्तिः हेमाहरीतकीयुक्तां सितां खादेत दिनत्रयम् । सद्यो नागविकारस्य शान्तिः भवति निश्चितम् ॥७॥ शर्करासे युक्त हेमाहरीतकीका तीन दिन पर्यन्त भक्षण करनेसे नाग विकारको शांति शीघ्र और निश्चितरूपमें होती है ॥७॥ ७ बंगविकारशान्तिः सेपशूगी सितायुक्तां यः खादेच्च दिनत्रयम् । बंगविकारशान्ति: स्यात् तमः चन्द्रोदये यथा ॥८॥ जिस प्रकार चन्द्रके उदय से अन्धकारकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकार शर्करा युक्त में ढाशी गो का तीन दिन पर्यन्त सेवन करनेसे बंग के विकारकी शान्ति होती है ॥ ८ ॥ ८ आरविकारशान्तिः सेवितं मधुखण्डाभ्यां त्रुटिचूर्ण दिनत्रयम् । आरविकारशान्तिः स्यात् तिमिरं साधुसंगमे ।।९।। १ वनब्राह्मीं इति क पुस्तके पाठ: - For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिस प्रकार सत्पुरुषोंके सत्संग से अज्ञानरूप अंधकारकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकार से मधु और शर्करायुक्त एलायची चूर्णका तीन दिन पर्यन्त सेवन करनेसे आर (यशद) विकारकी शान्ति होती है ॥९॥ ९ त्रिधातुविकारशान्तिः यः पुमान् प्रातरुत्थाय त्रिफलाचूर्णसेवकः । तस्य त्रिधातोः शान्तिः स्यात् यथा पापं शिवार्चने ॥१०॥ जिस प्रकार भगवान शंकरके पूजन से पाप को निवृत्ति होती है, उसी प्रकार से जो व्यक्ति प्रातः कालमें त्रिफला चूर्णका सेवन करता है उसके त्रिधातु (नाग, बंग और यशद) विकारकी शान्ति होती है ॥१०॥ १० अयोविकारशान्तिः सैन्धवं त्रिवृतायुक्तं सेवितं तप्तवारिणा । अयोविकारशान्तिः स्यात् पापं केशवदर्शनात् । ११ । जिस प्रकार भगवान विष्णु के दर्शन से पापकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकार से त्रिवृतायुक्त सैन्धवका उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे अयो विकारको शान्ति होती है ॥११॥ दूर्वारसं समादाय मधुना वा पिबेन्नरः । अयोविकारशान्तिः स्यात् कष्टं देवार्चाने यथा ॥१२॥ जिस प्रकार देवपूजनसे कष्टकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकारसे मधुयुक्त दूरिसका पान करनेसे अयोविकारकी शान्ति होती है ॥१२॥ For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ मण्डूरविकारशान्तिः हरीतकी च मधुना खादयेत् यो दिनत्रयम् । तस्य मडूरशान्तिः स्यात् स्नाने देहमलं यथा ॥१३॥ जिस प्रकार स्नान करनेसे देहमलको निवृत्ति होती है, उसी प्रकारसे मधुयुक्त हरीतकीका तीन दिन पर्यन्त सेवन करनेसे मण्डूर के विकार की शान्ति होती है ॥१३॥ १२ कृपाणिकालाहविकारशान्तिः श्वेतदूर्वारसं यो नै मितायुक्तं पिबेन्नरः । तस्य कृपालिकालाहविकारशान्तकारकम् ॥१४॥ शर्करायुक्त श्वेतदूर्वाके रसका पान करनेसे कृपाणिका लोहके विकारकी शान्ति होती है ॥१४॥ १३ पिंगविकारशान्तिः दाडिमम्य फल पक्वं जल तस्य पिबेन्नरः । पिंगविकारशान्तिः स्यात् पातक गुरुवन्दनात' ॥१५॥ जिस प्रकार गुरुको वंदन करनेसे पापकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकारसे पक्व दाडिम फलके रसका पान करनेसे पिंगविकारकी शान्ति होती है ॥१५॥ १ अयं श्लोक: ज पुस्तके द्वितीयसमुदेशे तालविकारशान्ती उल्लिखितः । For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ घोषविकारशान्तिः चिंचाफलानि पक्वानि जले पिष्ट्वा पिबेन्नरः । घोषविकारशान्तिः स्यात् दारिद्रयं निधिदर्शनात् १.१६॥ जिस प्रकार निधिको प्राप्त करनेसे दरिद्रताकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकारसे पक्व चिंचाफलको जलमें पीस कर पान करनेसे घोष ( कांस्य ) के विकारकी शान्ति होती है ॥१६॥ ____ इति श्री अनुपानमंजर्या धातुविकारशान्तिप्रकरणं नाम प्रथमः समुद्देशः ॥ For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १५ मलसंयुत पारदविकारशान्तिः www.kobatirth.org द्वितीयः समुद्देशः मलसंयुक्त पारढके सेवन से यदि विकार उत्पन्न हुआ हो तो बुद्धिमान पुरुष विधिपूर्वक - पाचित गन्धकका सेवन करे ॥१॥ 41 विकारे। यदि जायेत पारदात मलसंयुतात् । गन्धकं सेवयेत् धीमान् पाचितं विधिपूर्वकम् ॥ १॥ १६ सूतविकारशान्तिः $1 पारद के दोषोंकी शान्ति होती है ||२|| गन्धकं माषयुग्मं च नागवल्लीदलैः सह । यः खादयेत पारदस्य दोषशान्तिस्तदा भवेत् ॥२॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नागवल्लीके पानके साथ दो मासा गन्धक का सेवन करनेसे " नागकेसं च इति ज पुस्तके पाठ : २ 'सूर्ययोगान्तरासाध्यं सूतदोषविकारनुत || इति ख पुस्तके पाठ : " सूर्ययोगान्तरासाद्याः तुत्थदोषविकारनुत् ॥ इति ज पुस्तके पाठ : द्राक्षा कूष्माण्डखण्डानि तुलसी शतपुष्पिका | लगं त्वक् च नागं च गन्धकेन समांशकम् ||३| कर्षमात्रं पयो भुंक्ते सर्व सर्वं पृथक् पृथक् 1 सूर्योदये तमो यद्वत् सूतदोषः प्रणश्यति || ४ || For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जिस प्रकार सूर्यके उदयसे अन्धकारकी निवृत्ति होती है । उसी प्रकारसे पारद के दोषोंकी निवृत्तिके लिए द्राक्षा, कूष्मांडखण्ड, तुलसी, शतपुष्पिका, लवंग, दालचीनी, और नागकेसर - इन द्रव्योंमेंसे पृथक पृथक् किसी एक द्रव्य के समान मात्रामें गन्धकका कर्षमात्र दूधके साथ सेवन करे ॥३-४॥ १७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नागवल्लीरसप्रस्थं भृंगराजरसं शुभम् । तुलसीरसप्रस्थं च छागदुग्धं समांशकम् ॥ मर्दनं सर्वगात्रेषु यामयुग्मं दिनत्रयम् । स्नानं शीतलनीरेण सूतदेषप्रशान्तये । ५-६ सूत - पारद के दोषकी निवृत्ति के लिए नागवल्लीरस, भृंगराजरस तथा तुलसीरस- इनमेंसे किसी एक रसको प्रस्थ परिमाण में लेकर अजादुग्धके साथ मिलाकर तीन दिन पर्यन्त प्रतिदिन दो प्रहर तक शरीर मर्दन करें, तदनन्तर शीतल जल से स्नान करें ||५-६ ॥ तालविकारशान्तिः जीरकं शर्करायुक्तं सेवयेत् दिनसप्तकम् । तालविकारशान्तिः स्यात् दारिद्रयमुद्यमैः यथा । ७॥ जिस प्रकार उद्यमसे द्रारिद्रयकी निवृत्ति होती है । उसी प्रकारसे शर्करायुक्त जीरकचूर्णका सात दिन पर्यन्त सेवन करनेसे तालविकार की शान्ति होती हैं ॥७॥ कूष्मांडस्य रसो देयः दुरालभा तथैव च । राजहंसीरसस्तावन् तालविकारशान्तिकृत् ||८| For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कुष्मांडरस, धमासा अथवा हंसराजके रसके सेवन से तालके विकारको शान्ति होती है ॥८॥ सौवर्णपुष्पी भूनिम्बक्वाथं पिवेत दिनत्रयम् । तालविकारशान्तिः स्यात् कामशान्तिः यथा स्त्रिया || ९ || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिस प्रकार स्त्रीके सेवन से कामकी शान्ति होती है । उसी प्रकारसे सुवर्णपुष्पी और भूनिम्बके क्वाथका तीन दिन पर्यन्त सेवन करने से तालविकारकी शान्ति होती है ||९|| यथा रसविषं हन्यात् गोदुग्धेन च गन्धकम् । तथा सतिसर्पाक्षीरसो तालविषं पुनः । १०॥ १८ मनः शिलाविकारशान्तिः जिस प्रकार गोदुग्धके साथ गन्धकका सेवन करनेसे रस- पारदका विष नष्ट होता है, उसी प्रकारसे शर्करा युक्त सर्पाक्षी के रसका सेवन करनेसे तालका विष नष्ट होता है ॥ १० ॥ जीरकं माक्षिकयुतं सेवते यो दिनत्रयम | मनःशिलविकारश्च तद्देहान्नश्यति ध्रुवम् ||११|| मधुयुक्त जीरक चूर्णका तीन दिन पर्यन्त सेवन करनेसे मनःशिला के विकार अवश्य नष्ट होता है || ११|| (6 'तस्य विकारं कुनटी न करोति कदाचन" । इति ख ज पुस्तकयोः पाठः For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar १० १९ बलिविकारशान्तिः गवां पयो घृतयुतं बाल विकृतिशान्तिकृत् । तथैव देवकुसुमं वचायुक्तं च शान्तिकृत् ॥१२॥ वृतयुक्त गोदुग्ध अथवा बचायुक्त लवंगका सेवन करनेसे बलि-गन्धकके विकारकी शान्ति होती है ॥१२॥ २० अभ्रकविकारशान्तिः धात्रीफलं जले पिष्टवा य. सेवेद्वा दिनत्रयम । तस्य विकारशान्ति: स्यादधकस्य न संशयः ॥१३॥ भात्री-आमलको फलको जलमें पीसकर तीन दिन पर्यन्त सेवन करनेसे अभ्रकके विकारकी शान्ति होती है ॥१३॥ २१ माक्षिविकारशान्तिः कुलत्थस्य कषायेण माक्षिविकारशान्तिकृत् । तौब दाडिमत्वचा देयाः देहसुखार्थिने ॥१४॥ देहसुखकी कामना रखनेवाले पुरुषको माक्षिक विकारकी शान्तिके लिए कुलत्थ कषाय अथवा दाडिम त्वचाका सेवन करना चाहिए ।।१४।। २२ शिलाजतुविकारशान्तिः मरिच घृतसंयुक्त सेवते दिनसप्तकम् । तस्य शिलाजिच्छान्तिः स्यात् तद्वद्वेतसशान्तिकृत् ? ॥१५॥ For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २३ मल्लविकारशान्तिः www.kobatirth.org ११ घृतकें साथ मरिच चूर्णका सात दिन पर्यन्त सेवन करने से शिलाजित और अमलवेतस के विकारोंकी शान्ति होती है || १५|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सितया सह पानाच्च मेघनादरसस्य च । तस्मात् मल्लविषं हन्ति यथा निम्बू सेवनात् ॥ १६॥ जिस प्रकार निम्बूके रसका प्रसेवन करनेसे मल्लविषका नाश होता है, उसी प्रकारसे मेघनाद - चौलाइके रसका शर्कराके साथ सेवन करनेसे भी मल्लविषका नाश होता है ||१६|| गोपयः खदरोद्भूतं सितायुक्तं तथैव च । यः सेवयेद् याममेकं मल्लशान्तिः भवेत् ध्रुवम् ||१७|| २४ रसकर्पूरविकारशान्तिः शर्करायुक्त गोदुग्ध अथवा शर्करायुक्त खदिरसारका सेवन करनेसे एक याममात्र समय में मल्लविषकी शान्ति होती है ||१७|| धान्यकसितया युक्तं वारिमर्दितपानतः । रसकर्पूरशान्तिः स्यात् तथा महिषीकृतः || १८ || शर्करायुक्त धनियाको जलमें पीसकर पान करनेसे अथवा महिषी शकृत् के रसका शर्करा के साथ पान करनेसे रसकर्पूरके विकारकी शान्ति होती है ||१८|| २५ तुत्थकविकारशान्तिः जम्बीरीरसमादाय य पिबति दिनत्रयम् । तस्य तुत्थकशान्तिः स्यात् तद्वल्लाजेन वारिणा ||१९|| For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar जम्बीरी रस अथवा वारिमर्दित लाजाका तीन दिन पर्यन्त पान करनेसे तुत्थक विकारकी शान्ति होती है |१९|| २६ मृदासंगविकारशान्ति. गवां घृतं सितायुक्तं मृदासंगस्य शान्तिकृत । तच चाम्लकरस. सद्यो विकृतिशान्तिकृत ॥२०॥ शर्करायुक्त गोत अथवा अग्लरसयुक्त इम्ली निम्बू आदि द्रव्यों के रसका सेवन करनेसे मृदासंगके विकारोंकी शान्ति होती है ॥२०॥ २७ नवसादर-मृति-गैरिक-कासीस-काच-तौरी-विकारशान्तिः गादर्भ शकृतं भक्ष्येत् तथैव नवसादरम । मृत्ति-गैर-कासीस-काचं तौरी च शान्तिकृत् ? ॥२१।। गर्दभके शकृत् का ( जलके साथ ) भक्षण करनेसे नवसार, मृति, गैरिक, कासीस, काच और तौरी ( फीटकरी ) के विकारोंकी शान्ति होती है ॥२१॥ २८ मुक्ता-प्रवाल-हीरकविकारशान्ति घृतं मधुसितायुक्तं गोदुग्धेन समं पिबेत् । तस्य मुक्ताप्रवालस्य हीरकस्य विष हरेत् ॥२२॥ मधु और शर्करा से युक्त घृतका गोदुग्धके साथ पान करनेसे मुक्ता, प्रवाल तथा हीरकके विषकी शान्ति होती है ॥२२॥ इति श्री अनुपानमंजर्या' उपधातुविकारशान्तिप्रकरणं नाम द्वितीयः समुदेशः ॥ For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan अथ तृतीयः समुद्देश: २९ नागफेनविकारशान्ति बृहत्क्षुद्रारसः दुग्धं पलमाननिषेवणात् । नागफेनविषं नश्येत् स जीवति चिरं पुमान् ॥१॥ दुग्धके साथ एक पल प्रमाण बृहत्क्षुद्राके रसका सेवन करनेसे अहिफेन विषका नाश होता है और वह मनुष्य मृत्युभयसे मुक्त होता है ।।। उग्रा सिन्धुः तथा कृष्णा मज्जा' मदनकं फलम् । तेन वान्तिः भवेत् सद्यो नागफेनविषं हरेत् ॥२॥ वचा, सैन्धव, पिप्पली और मदनफलकी मज्जा देनेसे वमन होता है और इससे नागफेन विषका नाश होता है ।।२।। (टंकगं तुत्थकं चौव घृतयुक्तं च दापयेत् । तेन वान्तिः भवेत् सद्यो नागफेनविषं न्यसेत्)२ ( टंकण और तुत्थकको धृतके साथ देनेसे शीघ्र ही वमन होता है और इससे नागफेन विषका नाश होता है ) ३० धत्तविकारशान्ति: वृन्ताकफलबीजस्य रसो हि पलमात्रया । भक्षणात भुक्तधत्तूरविषं नश्यति निश्चितम् ॥३॥ १ व्यधः इति ज पुस्तके पाठः २ ग च पुस्तकयोः अधिकः पाठः For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नाश होता है || ३ |! www.kobatirth.org ३१ १४ वृन्ताकफलरसका पलमात्र प्रमाण में भक्षण करने से धत्तरविषका ३२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( एक प्रस्थ परिमाण गोदुग्ध और पल प्रमाण शर्करा का पान करनेसे धत्रविका नाश होता है । ( गोदुग्धप्रस्थमेकं तु पलद्वयं तु शर्करा । तत्पानेन विषं याति धतूरकस्य निश्चितम् II ) कार्पासास्थि तथा पुष्पं जलेनात्क्वाथ्य पानतः । धत्तरस्य विषं याति यथा लवणसेवनात् ॥ ) 1 कार्पासके अस्थि और पुष्पके क्वाथका पान करनेसे लवण सेवन के समान धत्तरविषका नाश होता है ) वत्सनाभविकारशान्तिः पटवणस्य वृक्षस्य रसो पलप्रमाणतः । शर्करायुक्तपानेन वत्सनागविषं हरेत् ||४|| पटवण वृक्षके पल प्रमाण रसको शर्करा के साथ areनागविषका नाश होता है ||४|| पान करने से भल्लातकविकारशान्ति: रसो हि मेघनादस्य नवनीतसमन्वितः । भल्लातसंभवं शोफं हन्ति लेपेन देहिनाम् ||५|| For Private And Personal Use Only ग घ च छ ज पुस्तकेषु अधिकौ २ लोकौ २ हीरवणस्य इति ग पुस्तके पट्टशनस्य इति जं पुस्तकें पाठ: Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवनीतयुक्त मेघनादरसके लेपसे भल्लातक से उद्भूत शोथ नष्ट होता है ।।५।। दारुसर्पपमुस्ताभिः नवनीतेन लेपयेत् । भल्लातकविकारोऽयम् सद्यो गच्छति देहिनाम् ॥६॥ नवनीतके साथ दारु, सर्पप और मुस्ताका लेप करनेसे भल्लातक विकारकी शान्ति होती है ।।६।। नवनीततिलादुग्धैः पुनः खण्डघृतेन च । एतद्वयप्रलेपेन हन्ति भल्लातकव्यथाम् ॥ नवनीत और तिलको दूधके साथ अथवा शर्कराको घृतके साथ लेप करनेसे भल्लातकसे उत्पन्न व्यथा शान्त होती है ।।७।। ३३ भंगाविकारशान्ति: गोदधि शुठीयुक्तं च पाने भंगाविकारनुत् । आर्द्रकस देसडा तद्वत् जले पिष्टवा पिबेन्नरः ॥८॥ पीसकर शुंठीयुक्त गोदधि और संदेसडा के आर्द्रमूल को जलमें पान करनेसे भांगके विकारों की शांति होती है ।।८।। ३४ उच्चटाविकारशान्तिः मेघनादरसा ग्राह्यो शर्करायुक्तपानतः । उच्चटायाः विकारस्य शान्ति: स्यात् दुग्धसेवनात् ॥९॥ - १ "पुनः खण्डयुतं तथा" इति ज पुस्तके पाठः For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शर्करायुक्त मेघनादरस अथवा केवल दुग्ध सेवन से उचटा-गुंजाके विकारोंकी शान्ति होती है ॥९॥ ३५ मद्यविकारशान्तिः मधुखर्जूरीमद्वीका वृक्षाम्लाम्लाश्च दाडिमः । परुषः सामलकश्चौव युक्तो मद्यविकारनुन ॥१०॥ मधु, खजूर, द्राक्षा, वृक्षाम्ल, अम्ला रसवाले अन्य द्रव्य, दाडिम, फालसा तथा आमलक का सेवन करने से मद्यके विकारों की शान्ति होती है ।।१०॥ ३६ पूर्वीफलविकारशान्तिः पूर्वीफलमदे शीतवस्त्रवातः हितो भवेत् । शर्करा भक्षणे देया मधु वा शर्करान्वितम् ॥११॥ पूगीफलसे उत्पन्न मदमें शीतल वस्त्रवायु हितकारी होता है । एवं खाने के लिए केवल शर्करा अथवा शर्करायुक्त मधु देना चाहिए ॥११॥ ३७ कोद्रवविकारशान्तिः कोद्रवाणां भवेन्मूर्छा देय क्षीर सुशीतलम् । सगुड कूष्माण्डरसो हन्ति मदं तु कौद्रवम् ॥१२॥ कोद्रवसे उत्पन्न मूर्छा में सुशीतल क्षीर और कोद्रवसे उत्पन्न मदमें गुडयुक्त कुष्माण्ड रसका सेवन करना चाहिए ।।१२।। ३८ कर्णवीरविकारशान्ति. सितायुक्त सदा देय दधि वा माहिष पयः । तथा चार्कत्वधा पीता कर्णवीरविषापहा ॥१३॥ For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शर्करायुक्त माहिष दधि अथवा माहिष पयका अथवा अर्कत्वचा ('करीरत्वचा ? ) के चूर्णका जलके साथ पान करनेसे कर्णवीर-करवीर विकारोंकी शान्ति होती है ।।१३।। ३९ वज्रिविकारशान्तिः शीतवारि सितायुक्त पाने वज्रिविषापहम् । वस्रवायुः तथा कार्यः शीतच्छायां च सेवयेत् ॥१४ । शर्करायुक्त शीतल जलका पान करनेसे वज्रीविषके विकारोंकी शान्ति होती है । वज्रोविपके विकारवाले व्यक्तिको शीतल छाया और वस्त्र वातका सेवन करना चाहिए ।।१४।। ४० स्नुह्यर्कविकारशान्तिः चिंचापत्रं जले पिष्ट्वा मईयेत् शान्तिकृत् सदा । हैमगिरिजले पाने स्नुही चाविकारनुत् । १५।। चिंचापत्रको जलमें पीसकर शरीरमें मर्दन करनेसे और सुवर्णगैरिक युक्त जलका पान करनेसे स्नुही और अर्कके विकारोंकी शान्ति होती है ॥१५॥ ४१ दन्तीवीजविकारशान्तिः धान्यकं सितया युक्त वारिमर्दितपानत: । तस्य दन्तीबीजजात विकार शान्तिकृत् सदा ॥१६।। १ अनुपानमंजरीको उपलब्ध गुजराती टीकामें अर्कत्वचाके अर्थके रूपमें करीरत्वचा लिखा है यह शास्त्र सम्मत नहीं है । २ दधिना सह य: पिबेत् इति ज पुस्तके पाट: ।। ३ निवृत्तिस्तस्य जायते इति ज पुस्तके पाठः । For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ache धनियाको जलमें पीसकर और शर्करा मिलाकर पान करनेसे दन्ती. बीजके विकारोंकी शान्ति होती है ॥१६॥ ४२ कोचकविकारशान्तिः घृत मधुसितायुक्त य पिबति सदा नरः । 'तस्य विष कोचकस्य विकारशान्तिकृत् भवेत् ॥१७॥ मधु और शर्करायुक्त घृतका पान करनेसे विषकोचक-कुचैलाके विकारोंकी शान्ति होती है ॥१७॥ ४३ लूकरोगशान्तिः दुष्टवातैः रवेस्तापैः लूकरोगश्च जायते । चिंचाम्लक मधुसिते पृथक् जलेन पाययेत् ॥१८॥ सूर्यके तापयुक्त दुष्टवायुसे लूक रोग उत्पन्न होता है । इसके शमनके लिए चिंचामलक और शर्करा तथा मधुयुक्त जलका पान करना चाहिए ॥१८॥ १ विषकोचविकारस्य शान्तिस्तस्य प्रजायते । इति ज पुस्तके पाठः २ चिचाम्लकसिताक्षौद्रान् दापयेत्तु पृथक् जले । इति ज पुस्तके पाठः For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ शीतलादाहशान्तिः 'मधुयुक्तं जल' दाहनाशनं शर्करायुतम् । नीलिकां च घृते पिष्टवा देहलेपे च शान्तिकृत् ॥१९॥ शीतलाजनित दाहकी शान्तिके लिए मधु और शर्करायुक्त जलका पान तथा नोलिकाको जलमें पीसकर शरीरमें लेप करना चाहिए ॥१९॥ ___इति श्री अनुपानमंजर्या स्थावरविषशान्तिप्रकरणं नाम तृतीयः समुदेशः । - - १. मधूदकयुतं पीतं शीतलादाहनाशनम् । इति ज पुस्तके पाटः । For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४५ पन्नगविषशान्तिः www.kobatirth.org चतुर्थः समुद्देशः 'तरक्षुदंष्ट्रया रूपं वैनतेयस्य वातिकः । ? कृत्वा बिभर्ति यो बाहौ तं दशन्ति न पन्नगाः ॥१॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तरक्षुनामक हिंस्र प्राणीके दांतको गरुड आकारके तावीजमें रख कर बाहुमें धारण करने वाले पुरुषको सर्प दंश नहीं करते हैं ||१|| बन्ध्याकर्कोटकीमूलं छागमूत्रेण भावितम । नस्य काञ्जिकसंपिष्टं विषोपहतचेतसाम् ॥२॥ विषमूच्छित व्यक्तिको अजाके मूत्र से भावित बन्ध्याककोर्टकी मूलको कांजीमें पीस कर नस्यके रूपमें देना चाहिए ||२|| लज्जामूल करे बद्धवा विलेप्य सकलं वपुः । रमते फणिभिः सार्द्ध वातिको गरुडेा यथा ॥३॥ लज्जामूलका करबन्धन और संपूर्ण शरीरमें उससे विलेपन करने वाला पुरुष गरुड पक्षीके समान भयंकर सर्पों के साथ खेलता है ||३|| त्रिफला चन्दनं कुष्ठमार्द्रकं घृतसंयुतम् ! पानलेपसमायोगे दष्टस्य विषनाशनम् ||४॥ त्रिफला, चन्दन, कुष्ठ तथा आर्द्रकको घृतमें मिलाकर पान और लेप करनेसे सर्पदष्ट पुरुषके विषका नाश होता है ||४|| १ श्लोकोऽयं ज पुस्तके नोपलभ्यतें For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोजिहा फलिनी शक्रवारुणी वा त्रिपर्णिका । एकैकपानमात्रेण सर्पादिगरलं हरेत् ॥५॥ गोजिह्वा, फलिनी, इन्द्रवारुणी और त्रिपर्णिका-इनमेंसे किसी भी एकके रसका पान करनेसे सर्प आदि विषका हरण होता है ॥५॥ सरामठा वचा घृष्टा करबाहुप्रलेपनात् । घटसर्पास्तदा ग्राह्या न दशन्ति कदाचन ॥६॥ हिंगु सहित वचाको घिस कर और बाहुमें प्रलेपन करनेसे घटस्थित सोका ग्रहण करने पर सर्वथा दंशका भय दूर होता है ॥६॥ यथा खलस्य गैषम्यात् पीडितो याति सज्जनः । तथा वचाया धूपेन गृहं मुक्त्वा व्रजदेहिः ॥७॥ जिस प्रकार दुर्जनके विषम व्यवहारसे पीडित सज्जन पुरुष दूर चला जाता है उसी प्रकारसे वचाके धूपसे सर्प घर छोड कर दूर चला जाता है ॥७॥ '(तुत्थं चोप्रा कामफल गोदुग्धेन च पाययेत् । तस्मात् सर्पविषं याति तथोषणघृतेन च ॥ (तुत्थ, वचा और मदनफलको गोदुग्धके साथ पीलानेसे तथा मरिच सहित घृत पीलानेसे सर्पविष दूर हो जाता है). १ ग, घ, च, छ, ज पुस्तकेषु अधिक: श्लोकः For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ श्वानविषशान्तिः श्वानदंष्ट्राविष हन्ति लेपः कुक्कुटविष्ठया । गुडैस्तैलार्कदुग्धैश्च लेपः श्वानविषं हरेत् ॥८॥ कुक्कुटके विष्ठाका तथा गुड और तैलसे मिश्रित अर्क दुग्धका दंश प्रदेशमें लेप करनेसे श्वान विष नष्ट होता है ॥८॥ उन्मत्तश्वानदष्टानां कुमारीदलसैन्धवम् । सुखोष्णापः पिबन्पीडां त्रिदिनान्ते सुखावहम ? ॥९। सैन्धवमिश्रित कुमारीदलको कवोष्ण जलके साथ पीनेवाले पुरुषको उन्मत्त श्वानके दंशकी पीडा तीन दिनमें शान्त होती है और सुख प्राप्त होता है ॥९॥ तैल तिलानां पललं गुड च क्षीर तथा सममेव पीतम् । आलर्कमुग्र विषमाशु हन्ति सद्योभवं वायुरिवाभ्रवृन्दम् ॥१०॥ तिलतैल, पलाण्डु, गुड तथा अर्कक्षीर इन सबको एक साथ पीनेसे उग्र अलर्क विष, वायुसे मेघके समान तुरन्त दूर होता है ||१०!! जात्या ? शुष्कार्कमूलं च मरिच कर्षभक्षणात् । तव्रणं तत्क्षणादेव दहेत लोहशलाकया ।११। शुष्क अर्क मूलको मरिचके साथ कर्षमात्रामें भक्षण करनेसे और व्रणको तप्तलोह शलाकासे तत्काल दाग देनेसे अलर्क विष शान्त होता है ॥११॥ For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३ 'चोकमाज्यमथा चादौ देयं श्वानविषापहम् । अन्येषां सर्वकीटानां विष हन्ति चराचरम् ॥१२ । श्वान विष एवं अन्य सभी प्रकारके विषकीटोंका विष दूर करनेके लिए सर्व प्रथम शुद्ध घृतका पान करना चाहिए ॥१२॥ ४७ उदरगतदुष्टजन्तुविषशान्तिः विषकाचं जले पिष्ट्वा नित्य पिबति यो नरः । तस्योदरे दुष्टजन्तून् विनाशयति तत्क्षणात् ॥१३॥ जो पुरुष जलमें पीस कर विषकोच-कुपीलुका पान करता है, उसके उदरमें अवस्थित सर्व प्रकारके दुष्ट जन्तु तत्काल नष्ट होते हैं ॥१३॥ ४८ वृश्चिकविपशान्तिः बाणपुखरसोपेतं मेघनादरसस्तथा । शर्करासहित पानं विष वृश्चिकजं हरेत् ॥१४॥ शरपुंखके रसके साथ ('अहिफेन) और शर्कराके साथ मेधनाद रस पीने से वृश्चिक विष दूर होता है ॥१४॥ १ श्लोकोऽयं ज पुस्तके नोपलम्यते । २ मूलमें अहिफेन वाचक शब्दका निर्देश न होने पर भी उपेत शब्द किसी अन्य शब्दके अध्याहृत होने का संकेत देता है और अनुपान मंजरीकी उपलब्ध प्राचीन गुजराती टीका में साक्षात अफीमका उल्लेख मिलानेसे यहां अहिफेन द्रव्यका ग्रहण किया गया है । For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४९ गृहगेोधिका विषशान्तिः ५० २४ हिंगु चार्कपयोघृष्टं दष्टापरि च दापयेत् । वृश्चिकस्य विषं हन्ति यथा रजनीं धुपतिः || १५ || जिस प्रकार सूर्योदयसे रात्रीका नाश होता है उसी प्रकार अर्क दुग्धमें हिंगु पीस कर दंशकें और लेप करनेसे वृश्चिक के विषका नाश होता है ||१५|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कटुत्र शिशुकर जबीज द्वयं निशाया कपिकच्छुवीजम् । निहन्ति पानेन विलेपनेन विषं समग्र गृहगोधिकायाः || १६ || त्रिकटु, शिशुबीज, करंजबीज, हरिद्राद्वय तथा कौंचेका बीज - इन सबको एक साथ पीने और लेप करनेसे गृहगोधिका के विषका नाश होता है ||१६|| ५१ मूषकविषशान्तिः सरठविषशान्तिः अर्कमूलत्वचाचूर्ण पीतं शीतेन वारिणा । सरठस्य विषं हन्ति तत्क्षणान्नात्र संशय ||१७|| शीतल जलके साथ अर्कमूल त्वचा के चूर्णका सेवन करने मे सरठ के विषका तत्क्षण नाश होता है, इसमें कोई संशय नहीं है ||१७|| सितया सह पानं तु बाणपु खरसः पलम् । यः पिबेत् प्रातरुत्थाय मूषकस्य विषापहम् ||१८|| For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पल परिमाण बाणपुंख के रसको शर्करा के साथ प्रातःकाल उठ कर पीने से मूषकके विषका नाश होता है ॥१८|| ५२ श्वेतमूषकजन्यग्रन्थिचिकित्सा मूषकः पतितः चोर्ध्वात् श्वेतवर्णः सुदारुणः । पातस्थाने भवेत् ग्रन्थिः सा ग्रन्थिः मृत्युकारका ॥१९|| श्वेत वर्णका सुदारुण मूषक जिस स्थान पर ऊपरसे गिरता है, उस स्थानमें और उसके आसपास ग्रन्थि उत्पन्न होती है तथा वह ग्रन्थि मृत्युका कारण बनती है ॥१९|| शम्त्रेण प्रन्थिं विस्फेाट्य गार्दभं शकृतं पिबेत् । तेन मूषकदष्टस्य विकृतेः शान्तिकृत भवेत् ।२०। उक्त प्रन्थिका शस्त्रसे भेदन करना और गार्दभ शकृतका पान करना चाहिए । इससे मूषक दशके सभी विकार शान्त होते हैं ॥२०॥ ५३ सिहबालविषशान्तिः मधु च पलमानं च दिनविंशतिकं पिबेत् । तस्य सिंहवालसस्य ? विषं न स्यात कदाचन ।२१। वीस दिन पर्यन्त पल मान मधुका पान करने वाले पुरुषको सिंहबाल से उत्पन्न विकारों की शान्ति होती है ।।२१॥ ५४ भ्रामरीमक्षिकाविषशान्तिः माहिषं नवनीतं तक्रं दंशे च मईयेत् । भ्रामरी माक्षिकाशान्तिस्तथा च नागफेनकात् ॥२२॥ For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar माहिष नवनीत, माहिषतक्र तथा नागफेन-इनमैसे किसी एकका दंशके ऊपर मर्दन करनेसे भ्रामरी मक्षिकाके दंशकी शान्ति होती है ॥२२॥ ५५ कर्णप्रविष्टखर्जूरडंकदूरीकरणोपायः कर्णे प्रविष्टे खजूरे कर्जे मूत्रकं क्षिपेत् । तथैव तिलतैलं च डंके वस्तु च तत्तथा ॥२३॥ कर्णखजूर अथवा डंक नामक मक्षिका का कर्णमें प्रवेश होने पर कानमें मानवमूत्र अथवा तिलतैलका प्रक्षेप करना चाहिए ॥२३॥ ५६ दंशनिधिषीकरणम् जिह्वायास्तालुकायोगादमृतस्रवण तु यत् । विलिप्त तेन दंशस्य निविषं क्षणमात्रणः ॥२४॥ जिह्वाके तालुका योगसे जो अमृतस्त्रवण (थूक) होता है उसको दंश स्थान पर लगानेसे तत्क्षण निर्विष होता है ॥२४|| ५७ छुछुन्दविषविकारशान्तिः छुछुन्दरस्य दृष्टस्य गरल चोदरे गतम । तस्य काञ्जिकपानेन निर्विषं जायते क्षणात्' ॥२५॥ छुछुन्दरका दंश होने पर अथवा उसका विष उदरमें गया हो तो दंश स्थान पर कांजीका लेप और कांजीका पान करनेसे तत्क्षण निर्विष होता है ॥२५॥ १ अयं श्लोकः ज पुस्तके नापलम्यते For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७ ५८ जलविकारशान्तिः अलस्य विकृतिर्यस्य तस्य मण्डूरमर्पयेत् । गार्दभं शकृत तद्वत् तद्वच्चाजस्य शकृतम् ।।२६।।१ दुष्ट जलको पीने से उत्पन्न विकृतिकी शान्ति लिए, मण्डूर, गर्दभ शकृत् तथा अजाशकृत्का सेवन करना चाहिए ॥२६॥ ५९ मत्कुणदूरीकरणोपायः अर्कतूलमयी वर्तिः भाविता यावकेन च । कटुतैलाक्तदीपस्था निशायां मत्कुणापहा ॥२७॥ अर्कके रूइसे निर्मित बतीको यावकसे भावित करके कडुवे तैलके दीपमें रखकर रात्रिमें उपयोग करनेसे मत्कुण दूर हो जाते है ॥२७॥ ६० मूषकादीनां नि सारणोपाय भल्लातार्कफलं मुस्ता कपिकच्छुः पुनर्नवा । रालसिद्धार्थावतेषां चूर्णधूपप्रभावतः ॥२८॥ मूषकाः मशका माक्षी मत्कुणा विषकीटकाः । पलायन्ते गृहं मुक्त्वा यथा युद्धेऽतिकातरा: ॥२९॥ भल्लातक, अर्कफल, मुस्ता, कपिकच्छु, पुनर्नवा, राल और गौर सर्षप- इनके चूर्ण के धूपके प्रभावले मूषक, मशक, माक्षी, मत्कुण तथा अन्य सभी प्रकारके विषकीटक युद्ध में अतिकातरके समान घर छोडकर भाग जाते है ॥२८-२९।। १ अयं श्लोक: ज पुस्तके नोपलम्यते For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१ यूकाविनाशनोपायः नागवल्लीरसे सूतमर्दित' चीवर धयेत् । तच्चीवराधारणेन यूकाशान्तिर्भवेत् ध्रुव९५ ॥३०॥ नागवल्ली के रसमें पारदको मर्दित करनेके अनन्तर उसमें वस्त्रको भिगोकर धारण करनेसे अवश्य यूका दूर होती है ॥३०॥ ६२ यूका-लिक्षा-सावाविनाशनोपायः श्रीमूलं गोजले पिष्ट्वा देहलेप च कारयेत् । यूका लिक्षा च सावा च नाश याति तु तत्क्षणात् ॥३१।। बिल्वमूलको गोमूत्रमें पीस कर देहलेप करनेसे यूका, लिक्षा और सावाका तत्क्षण नाश होता है ।।३१।। शिलागन्धकगोमूत्रविडंगकटुतैलतः । एतल्लेपात् भवेत् शान्तिः यूकालिक्षाश्च शावकाः ? ॥३२॥ मनशील, गन्धक, गोमूत्र, वायविंडग इन सभी द्रव्यों को कडुवा तैळमें मिलाकर लेप करनेसे यूका, लिक्षा और सावाका नाश होता है ॥३२॥ ६३ जलोदरशान्तिः पट्पदी चादरे प्राप्ता जलोदर प्रजायते । तस्य स्नुपिप्पली देया विकृतिशान्तिः स्यात्तथा ॥३३॥ १ श्लोकोऽयं ज पुस्तके नोपलम्यते । For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६४ सर्वविपपथ्यापथ्यकथनम् यूकाके उदरमें जानेसे जलोदर नामक रोगकी उत्पत्ति होती है । उस रोग-विकृतिकी शान्ति के लिए स्नुदुग्ध भावित पिप्पली चूर्ण देना चाहिए ||३३|| २९ ६५ सर्वविषशमनोपायः तैल' चाम्लं तथा निद्रां विषपीतश्च वर्जयेत् । तण्डुलं घृतयुक्तं च पथ्यं श्रेष्ठ विषातुरे ||३४|| किसी भी प्रकारके विषसे किसी भी प्रकार से प्रभावित व्यक्तिके लिए तैल, अम्लपदार्थ तथा निद्रा अपथ्य है और धृतयुक्त तण्डुल श्रेष्ठ पथ्य है ||३४|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुस्तथेोपधातुञ्च वि स्थावर जंगमम् । सर्वेषां वमन भ्रष्ठ तथैव च विरेचनम् । ३५|| धातु उपधातु स्थावर और जंगम विष से उत्पन्न सभी प्रकारके विकारोंकी शान्ति के लिए वमन और विरेचन सर्वश्रेष्ठ उपाय हैं ||३५|| ६६ ज्ञाताज्ञातविषविकारपथ्यकथनम् ६७ अलफे पथ्यनिदेशः ज्ञाताज्ञातविकारेषु सदा चेदं च भेषजम | सिता मधु घृतं दुग्धं तण्डुला माहिषं शकृत् ||३६|| पृथक् पृथक् तद्दयं श्वानस्य च विषं विना । अलकें रूक्षमन्नं च तैलं पथ्यं पलाण्डुः वा ||३७|| For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समुदेशः ३० ज्ञात और अज्ञात सभी प्रकारके विष विकारों में शर्करा, मधु, घृत, दुग्ध, तण्डुल और माहिष शकृत् सर्वश्रेष्ठ औषध और पथ्य हैं । श्वानविष अलर्कविषको छोडकर अन्य विषोमें इन द्रव्योंको पृथक् पृथक् देना चाहिए किन्तु श्वानविषमें विशेषतया रूक्ष अन्न, तैल और पलाण्डु पथ्य है ।। ३६-३७ । इति श्री अनुपानमञ्जर्या जंगमविषशान्तिप्रकरणं नाम चतुर्थः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चम समुद्देशः अथातः संप्रवक्ष्यामि धातूपधातुमारणम् । रोगाणामनुपानं च संक्षेपात कथ्यतेऽधुना ॥१॥ अब इस प्रकरणमें धातु तथा उपधातुओंका मारण और रोगोंके अनुपानका संक्षेपसे वर्णन करेंगे ||१|| ६८ सप्तलोहसामान्यशोधनम् गोजले त्रैफले तके ह्यारनाले कुलत्थके । सप्तधातूपनिर्वापात् सप्तलोहं विशुद्धयति ।.२॥ गोमूत्र, त्रिफलाक्वाथ, तक्र, आरनाल तथा कुलत्थक क्वाथमें सात धातुओंका उपनिर्वाप करनेसे सातों धातुओंका शोधन होता है ॥२॥ ६९ शुद्धलोह-मण्डूरमारणम् शुद्धलाह सूक्ष्मचूर्ण कुमारीरसमर्दितम् । अर्कदुग्धे पुनर्मषं गजपुटेऽग्निना दहेत् ।३॥ शुद्ध लोहके सूक्ष्मचूर्णको कुमारी रसमें मर्दित करनेके अनन्तर अर्कदुग्धमें पुनः मर्दित करना चाहिए | और गजपुटमें अग्नि देना चाहिए ।।३।। एवं पुटत्रयं कुर्यात् निर्दोष म्रियते अयः । तबच्चासारमण्डूरं म्रियते तत्क्षणं सदा । ४॥ इस प्रकार तीन गजपुट देनेसे शुद्ध लोहका मारण होता है । इसी प्रकार शुद्ध मण्डूका भी तत्काल मारण होता है ॥४॥ For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० लोहस्य रोगानुसारी सानुपानोपयोगः अनुपानेन व्याधौ तु दीयते च पृथक् पृथक् । मधुनि त्रैफले तके पाण्डुरोग विनाशयेत् .. ५। मारित लोहको रोगानुसारी अनुपान के साथ देना चाहिए और मधु, त्रिफलाक्वाथ अथवा तक्रके साथ देनेसे पाण्डुरोगका शमन होता है ॥५॥ ७१ लोहप्रशंसा आयुःप्रदाता बलवीर्यकर्ता रोगप्रहर्ता मदनस्य कर्ता । अयःसमानं नहि किंचिदन्यत् रसायनं श्रष्ठतमं हितं च ।।६।। आयुष्प्रद, बलप्रद, वीर्यप्रद, रोगनाशक तथा कामवृद्धिकर लोहके समान श्रेष्ठ और हितकर अन्य कोई रसायन नहीं है ॥६॥ ७२ त्रपुमारणम् सूक्ष्माणि त्रपुपत्राणि कारयेच्च सदा बुधः । शुष्कपिचुमन्दपत्रे छगणद्वयसम्पुटे ||७|| श्वेतवर्ण भवेद्वगं चाम्नियोगेन तत्क्षणात् । तद्वच्च तिलखलेन मेन्दीपत्रे तौव च । ८॥ अंगके सूक्ष्म पत्र बनाकर शुष्क निम्ब पत्रमें रखकर दो उपलों के सम्पुटमें अग्नि देनेसे तत्क्षण श्वेतवर्णकी बंग भस्म बन जाती है । इस प्रकार तिलखल अथवा शुष्क मेन्दीपत्रके साथ पुट देनेसे भी बंगका मारण होता है ॥७-८॥ For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७३ नागमारणम् www.kobatirth.org ३३ ७५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूक्ष्माणि नागपत्राणि कारयेच्च भिषग्वरः । शुष्कापामार्गपत्रेषु छगणद्वयसम्पुटे ||९|| श्वेतवर्ण भवेन्नागं चाग्नियोगेन तत्क्षणान् । अनुपानेन तद्देयं भवेत् देहबलं यथा ॥ १० ॥ उत्तम वैद्यको नागके सूक्ष्म पत्र बनवा कर उसको शुष्क अपामार्ग पत्रों में रख कर दो उपलोंके संपुटमें अग्नि देना चाहिए । इस प्रकार के अग्नि योगसे तुरंत श्वेत वर्णकी नाग भस्म तैयार हो जाती है । इस भस्मको देह बल अनुसार अनुपान के साथ देना चाहिए ||९-१०॥ ७४ नागप्रशंसा नागो हि नागशतमेकवलं ददाति व्याधिं विनाशयति चायुः बलं करोति । प्रधानधातोरपि बंगराजात् भुजंगराजो हरते च मृत्युम् ॥११॥ नागभस्म का सेवन करनेसे सो हाथी के समान बल प्राप्त होता है, व्याधिका नाश होता है तथा आयुष्य और बलकी वृद्धि होती है । बंगके प्रधान धातु होने पर भी नाग ही मृत्युको दूर करनेमें समर्थ है || ११ ॥ जस्तमारणम् उपयोगश्च oreपात्रे क्षिपेत् जस्तं त्रुटिचूर्णं ततः परम् । यामाग्निना भवेत् भस्म प्रमेहे तं च दापयेत् १२|| For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोहपात्रमें जस्तको रखकर उसमें त्रुटिचूर्ण मिलावें । और एक प्रहर अग्नि देनेसे जसतकी भस्म तैयार होती है। इस भस्मको प्रमेहके रोगियोंको अनुपान सहित देना चाहिए ॥१२।। ७६ धातूत्थापनविधिः घृतं मधु टंकणेन मृतधातु च योजयेत् । धमेत् प्रचुराग्नयोगेन मृतधातुश्च जीवति ॥१३॥ घृत, मधु और टंकणके साथ मृतधातुका संयोजन करके प्रचुर अनि देनेसे मृत धातु जीवित होती है ।।१३।। ७७ सूतशोधनमारणे सप्त कंचुलिका सूते तद्दोपशान्तिहेतवे । निर्दोषो भवति सूत. कुमारीरसति ॥१४॥ दीपाग्नौ घटिकार्द्धन लोहपात्रे बलिप्लुते । सूतो भस्म भवेत् कृष्णः लोह (क) कौतुककारक: ॥१५॥ पारदमें सात कंचुलिका दोष होते हैं । पारदको कुमारी रसमें मर्दन करनेसे उन दोषों की निवृत्ति होती है और पारद निर्दुष्ट . होता गन्धकसे विलिप्त लोह पात्रमें शुद्ध पारदको रखकर अर्द्ध घटिका पर्यन्त दीपाग्नि देनेसे आश्चर्य जनक कृष्ण वर्णकी पारद भस्म होती है ॥१४-१५॥ For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ शुद्धाशुद्धपारदसेवनलाभालाभौ गुंजा तस्य निजानुपानसहितो रोगानशेषान् जयेत् । मेहान् जन्तुविकारकुष्ठ कृशतां जीर्णज्वरं सत्वरम् । वर्षान जरां निहन्ति पलितं मृत्युं च मारौस्त्रिभिः पण्ढानां वृषतां करोति सहसाधिक्यं कलक्ष्मीप्रदम् ॥१६॥ एक गुजा प्रमाण पारद भस्म अपने अपने अनुपानके साथ देनेसे सभी रोगोंका शमन करती है । विविध प्रकारके मेह, जन्तुविकार, कुष्ठ, कृशता और जीर्ण ज्वरको शीघ्र दूर करती है । छ मासमें जरा और तीन मासमें पलित तथा मृत्युको दूर करती है । पंढको वृष बनाती है, परन्तु सहसा अधिक मात्रामें सेवन करनेसे कुष्ठादि रोग उत्पन्न करती है ॥१६॥ संस्कारहीनं खलु सूतराज यः सेवते तस्य करोति रोगम् । देहस्य नाशं विदधाति नूनं कुष्ठादिरोगं जनयेत् नराणाम् ।।१।। संस्कारहीन पारदका सेवन करनेसे विविध रोगोंकी उत्पत्ति होती है, देहका नाश होता है और कुष्ठ आदि रोग उत्पन्न होते है ॥१७॥ ७९ अभ्रकमारणम् अर्कक्षीरे दिनं पिष्ट्वा चक्राकार तु कारयेत् । वेष्टयेदर्कपत्रैश्च गजपुटेऽग्निना दहेत् ॥१८|| पुनमा पुनः पाच्यं सप्तवार पुन पुनः । म्रियते नात्र संदेहो चानुपानेन दापयेत् । १९॥ For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकको अर्कक्षीरमें दिनभर पीसकर चक्रिका बनावे' । तदनन्तर उसको अर्कपत्रसे वेष्टित करके गजपुटमे' अग्नि देना चाहिए । इसी प्रकारसे सातवार मर्दन और गजपुटमे अग्नि देनेसे अभ्रकका अवश्य मारण होता है । इसको विविध रोगोंमें योग्य अनुपान के साथ देना चाहिए ॥१८-१९॥ ८० अभ्रकसेवनलाभः अभ्रक मदनदीप्तिकर मतमायुष्कर चौव बलावह च । तक्रमेहमधुमेहनाशनं चांगनामदनमेहनाशनम् ॥२० । अभ्रक कामोरोजक, आयुष्कर, बलप्रद और हितकारी है । तक्रमेह, मधुमेह तथा अंगनामदनमेह ( योनिमेह ) का शमन करता है ॥२०॥ ८१ तालशोधनम् पीतं तालं बद्धवा वस्त्रे तिलतैले च क्षेपयेत् । तन्मध्ये दिनसप्तैव रक्षणीया भिषग्वरैः ॥२१॥ कलिचूर्णे पुनः खण्डे चणकायाः जले तथा सप्तसप्तदिनं कुर्यात् शुद्धं भवति तालकम् । २२।। पीत हरतालको वस्त्रमें बांधकर तिलतैल, कलिचूर्ण, शर्करा तथा चणक जल-प्रत्येकमें सात सात दिन पर्यन्त रखनेसे हरताल शुद्ध होती है ॥२१-२२ For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२ तालमारणम् तकेण तं च प्रक्षाल्य खल्वमध्ये च मर्दयेत् । तालचतुर्था शघृतेन पुनः तालं च मर्दयेत् ॥२३॥ तद्वन्मधु तथा दुग्धे तत्तुल्यां शर्करां क्षिपेत् । पश्चादर्कपये मद्यं चक्राकार तु कारयेत् ॥२४॥ शरावसंपुटे क्षिप्त गजपुटे तु तं दहेत् । पश्चात् खपरिके दग्धं श्वेतवर्ण च जायते ॥२५॥ निर्गन्धं निधूम तालमष्टमांशस्थितिः भवेत् । तन्मध्यात्तण्डुलमानं दद्याद्रोगानुपानतः । २६॥ इस शुद्ध पीत हरितालको तकसे धोकर खल्बमें मर्दन करना चाहिए । चतुर्थांश घृतके साथ इसका पुनः मर्दन करना चाहिए । इसी प्रकार पुनः चतुर्थाश मधु दुग्ध और शर्करा प्रत्येकके साथ पृथक् पृथक मर्दन करना चाहिए । इसके अनन्तर हरितालके समान प्रमाणके अर्क. दुग्धम मदन करके चक्रिका बनावें । इस चक्रिकाको शराव संपुटमें रख कर गजपुट दें । इसके अनन्तर खर्परिकामे रखकर जलानेसे हरिताल श्वेत वर्णकी हो जाती है । इस प्रकार निर्गन्ध और निर्धूम हरिताल अष्टमांश प्रमाणमें अवशिष्ट रहती है । उसमेंसे एक तण्डुल प्रमाण रोगानुसारी अनुपानके साथ देना चाहिए ॥२३-२६ ८३ तालप्रशंसा श्लेष्मरक्तविषवातभूतनुत् केवलं च खलु पुष्पहृत् स्त्रियाः । स्निग्धमुष्णं कटुकं च दीपनं कुष्ठहारि हरितालमुच्यते ॥२७॥ For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ हरिताल कफ, रक्तविकार, विष, वातविकार, और भूतबाधाको दूर करती है, स्त्रियोंके आर्तवको नष्ट करती है । यह हरिताल स्निग्ध, उष्ण, कटुक, दीपन तथा कुष्ठहारि है ॥२७॥ ८४ अशुद्धतालसेवनदोषाः हरति च हरितालं चारुतां देहजातां सृजति च बहुतापामंगसंकोचपीडाम् । वितरति कफवातौ कुष्ठरोगं विदध्यात इदमशितमशुद्ध मारित चाप्यसम्यक् ॥२८॥ अशुद्ध अथवा असम्यक् मारित हरिताल खानेसे देहके सौन्दर्यका हरण करती है, बहुतापयुक्त अंग संकोच पीडाको उत्पन्न करती है । कक और वायुको बढाती है और कुष्ठ रोगको उत्पन्न करती है ॥२८॥ ८५ धातूपधातुसेवनकाले पथ्यापथ्यनिर्देशः सर्वधातूपधातूश्च यदा सेवति मानवः । तस्मै गोधूमचणकांस्तण्डुलांश्च घृतं पयः ॥२९|| शर्करां भोजने दद्यात् तैलं क्षार च वर्जयेत् । अनुपानं सदा देयं पक्वापक्वे विचार्य च ॥३०॥ धातु और उपधातुओंका सेवन करनेवाले व्यक्तिको पथ्य भोजन के रूपमें गोधूम, चणक, तण्डुल, घृत, दूध और शर्करा देना चाहिए । परन्तु तैल और क्षार-लवणका त्याग करना चाहिए । धानु और उपधातुके पक्व और अपक्व स्वरूपको विचार करके अनुपानका निर्धारण करना चाहिए ॥२९-३०॥ For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६ अयकसंग्रहः शूले हिंगु घृतान्वितं च कथितं कृष्णा पुराणज्वरे वाते साज्यरसोनकः श्वसनके क्षौद्रान्वितं त्र्यूषणम् । शीते व्याललतादलं समरिच मेहे वरा सोपला दापाणां त्रितयेऽनुपानमुचितं सक्षौद्रमाोदकम् ॥३१॥ शूल रोगमें घृतयुक्त हिंगु, पुराण ज्वरमें पिप्पली, वागरोगमें वृतयुक्त लहसुन, श्वसनक रोगमें मधुयुक्त त्रिकटु, शीतरोगमें मरिचयुक्त बृहतीपत्र, प्रमेह रोगमें शर्करायुक्त त्रिफला, और त्रिदोष प्रकोपमें मधुयुक्त आईकस्वरस सर्वश्रेष्ठ अनुपान है ॥३१॥ घनपर्पटकं ज्वरे ग्रहण्यां मथितं हेम विषे वमीपु लाजाः । कुटजोऽतिस्रुतौ वृषोऽस्रपित्ते गुदकीलेवनल: कृमौ कृमिघ्नः ॥३२।। ज्वरमें मुस्ता और पर्पटक, ग्रहणीरोगमें मथित, विषमें सुवर्ण, वम में कमलबीजके लाजा, अतिसारमें कुटज, रक्तपित्तमें वसा, अर्शोरोगमें भल्लातक तथा कृमिरोगमें विडंग सर्वश्रेष्ठ अनुपान है ॥३२|| सूतो विस्फोटवातेषु व्रणेषु दम्भनक्रिया । रक्तस्रावे चाइमभेदः तथा वृकि? विसूचिके ॥३३॥ विस्फोटक वातमें पारद, व्रणमें अग्निकर्म, रक्तस्राव, अश्मभेद, तथा विसूचिकामें बृकि ? सर्वश्रेष्ठ अनुपान है ॥३३॥ वातरक्ते बलिं दद्यात् शिरोरोगेषु शुठिकाम । अश्मर्या च तथा कृच्छ्रे हेमाहरीतकी बलिम् ॥३४॥ For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वातरक्तमें गन्धक, शिरोरोगमें अ॒टिका, अश्मरी और मूत्रकृच्छू गेगमें (शर्करायुक्त) हेमाहरीतकी और गन्धक देना चाहिए ॥३४॥ अपस्मारे च मूर्छायां तैलं वायुः सुशीतलः । ऊळवाते बुद्धभ्रंशे देवपुष्यं वचायुतम् ॥३५।। अपस्मार और मू में तैल तथा सुशीतल वायु तथा ऊर्ध्ववात और बुद्धिभ्रंशमें बचायुक्त लवंग देना चाहिए ॥३५॥ उदरे स्नुकपिप्पली च क्षये च गुडूची तथा पाण्डुरे स्यादयः श्रष्ठं प्रदरे च रसांजन ॥३६॥ उदररोगमें अर्कदुग्धमें आप्लावित पिप्पली, क्षयरोगमें गुडूची, पांडुरोगमें लोह और प्रदर रोगमें रसांजन देना चाहिए ॥३६।। . ( दद्रुकण्डूपामकुष्ठे चोकगन्धकपारदान । लेपनात् भवति शान्तिः यथा नेत्रे रसाञ्जनम् ॥ ) ( दद्रु, कण्डु, पामा आदि कुष्ठरोगले शुद्ध गन्धकयुक्त पारदका लेप नेत्र रोग; रसांजन के समान शांतिप्रद होता है ।) एवानुपानयोगेन भेषजं कारयेत् भिषक् ।। यथा रोगस्तथा पथ्यं देशकालौ वयः पुनः । ३७ ? - - - १ प्राचीन उपलब्ध गुजराती अनुवादमें शर्कराका उल्लेख होनेसे मूल श्लोकमें अनुल्लिखित शर्करा यहां निर्दिष्ट है ।। २ इति ग-घ-च-छ पुस्तकेषु अधिक: श्लोकः । For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रकार देश, काल और वयको देखकर रोगानुसारी औषधका योग्य अनुपान और पथ्यके निर्देश करना चाहिए ॥३७॥ ८७ ग्रन्थकर्तुः परिचयः संवदष्टादशे वर्षे सागरा नेत्रे चाधिके । चौत्रे सिते च पंचम्यां गुरौ वारे च ग्रन्थकृत् ॥३८॥ कूर्मदेशेऽर्जुनपुरे तत्र वासी सदा किल । ... गुरुजीवाभिधानश्च गच्छे चागमसंज्ञिके ॥३९॥ तस्य पीताम्बरः शिष्यः तत्पादवन्दकः सदा देवगुरुप्रसादेन विश्रामो ग्रन्थकारकः ॥४०॥ संवत् १८४२- ४३ के चैत्र शुक्ला पंचमी और गुरुवारके दिन यह ग्रन्थलेखन समाप्त हुआ । आगम संज्ञक गच्छके अनुयायी जीव (जीवा) नामक गुरुके पीताम्बर नामक शिष्य थे । इन पीताम्बर गुरुके चरणमें वन्दना करने वाला विश्रामजी नामक शिष्यने देव तथा गुरुके प्रसादसे इस ग्रन्थकी रचना की है । ग्रन्थकार विश्रामजी कर्मदेश-कच्छके अर्जुनपुर- अंजार नामक ग्रामके निवासी हैं ॥३८-४०॥ अनुपानमञ्जर्या धातु-उपधातुमारण-रोगानुपाननामकः इति श्री पंचमः समुद्देश: इति अनुपानमंजरी समाप्ता For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan परिशिष्ट-१ अनुपानमंजरीमें निर्दिष्ट खनिज द्रव्योंकी सूची १ धातु : ग्रन्थसन्दर्भ अयः १-११,१३, । ५-३६ २ आर ३ कृपाणिकालोह ४ घोष १-१४ ५-१६ जस्त ५-१२ ताम्र १-१६ र त्रिधातु (नाग बंग यशद) १-७ । ५-९, १०.११ १-१५ १-८१ ५-८ १-१२। ४-२६ । ५-४ नाग १० पिंग ११ बंग १२ मण्डूर १३ रौप्य १४ लोह १५ सुवर्ण १६ हेम .१-४ । ५-३२ ५.३२ २ उपधातु : १ अभ्रक २-१३ । ५-१८, १९, २० For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ उपधातु : ग्रन्थसन्दर्भ २ काच २.२१ ३ कासीस गन्धक २-१,२,१० । ४.३२ गैरिक २-२१ तालम् २-७,८,९,१० । ५-२१,२२,२३,२६ तुत्थक तौरी २-२१ नवसादर २-२१ पारद २-१,२, प्रवाल २-२२ १२ बलि २.१२, ५-१५ । ५.३४ २-११। ४-३२ १३ मनःशिला १४ मल्ल २-१६,२-१७ १५ माक्षि २-१४ २-२२ २-२१ २-२० १६ मुक्ता मृत्ति १८ मृदासंग १९ रस रसकर्पूर २१ शिलाजित २-१८ २-१५ For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ २ अन्यसन्दर्भ उपधातु :२२ सूत २-३,४,५,६ । ५-१४ । ५-१५,५-१८ ५-३३ २३ हीरक २-२२ अन्य खनिज द्रव्य १ टंकण २ सैन्धव For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १ - स्थावरविष १ अनुपानमंजरीमें निर्दिष्ट स्थावर जंगमविषसूचिका - ग्रन्थसन्दर्भ ३-१५ ३-९ ३-१३ ३-१७ ३-१२ ३-१६ २ ३ ४ ५. ६ ७ ८ ९ १० अर्क उच्चटा कर्णवीर काचक कोद्रव दन्तीबीज धत्तूर नागफेन पूगीफल भलात गंगा ११ १२ मद्य १३ वज्री १४ बत्सनाग १५ स्नुही २ - जंगमविष www.kobatirth.org १ अलर्कविष २ उन्मत्तश्वानः ३ कर्णखर्जूर ३-३ ३-१, २ ३-११ ३-५, ६, ७ ३-८ ३-१० ३-१४ ३-४ ३-१५ ४-१० ४-९ ४-२३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only परिशिष्ट - २ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ग्रन्थसन्दर्भ जंगमविष ४ गृहगोधिका छुछुन्दर ६ जलविष ७ डक ८ दुष्टजन्तु ९ दंश १० पन्नग ११ भ्रामरी मक्षिका १२ मत्कुण मशक ४-२५ ४-२६ ४-२३ ४-१३ ४-२४ ४-१ ३, ४ - ४-२२ ४-२७, २८ ४-२८ ४-२८ ४-१८, २८ ४-३०, ३१, ३२ ४-३१, ३२ ४-१२, २८ ४-१४, १५ ४-८, १२ . ४-१९, २० . १४ माक्षी मूषक १६ यूका लिक्षा १८ विषकीटक १९ वृश्चिक २० श्वान २१ श्वेतमूषक २२ षट्पदिका २३ सरठ २४ सर्प २५ सावा ४-३१, ३२ ४-२१ २६ सिंहबाल For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan ८ धृत परिशिष्ट-३ अनुपानमंजरीमें निर्दिष्ट प्राणिज द्रव्योंकी सूची १ अजाशकृत् ४-२६ २ आज्य ४-१२, ५-३१ ३ कुक्कुटविष्ठा ४-८ ४ गर्दभशकृत् २-२१, ४-२०, २६ ५ गोजल ६ गोदधि ३-८ गोमूत्र ४-३२ २-१२, १५, २०, २२, ३-७, १७ १९, ४-४, ७,५-१३, २९,३१ छागदुग्ध २-५, ६, छागमूत्र ४-२, तरक्षुद्रंष्ट्रा ४-१ तालुकामृत ४-२४, १३ नवनीत ३-५, ६, ७, १४ पयः-दुग्ध २-३, ४, १०, १२, १७, २२, ३-१, ७, ९, १२, ४-४, ७, १२, ५-२४, २९. १५ मथित १६ मधु-माक्षिक १-५, ९, १२, १३, २-११, २२, ३-१०, ११, १७, १८, १९, ४-२१,५-५, १३, २४, For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar :४८ २-१८, ४-३४, ३५, ४-२२ १७ महिषीशकृत् १८ माहिषतक १९ माहिषधि २० माहिषनवनीत २१ माहिषपयः २२ मूत्र (मानुष ) २३ सुशीतल क्षीर २४ क्षौद्र ३-१३ ४-२३ ३-१२, ४-१० ★★ For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १ ર ३ ४ ६ कटुतैल खण्ड गुड तिलखल तैल, तिलतैल यावक: www.kobatirth.org अनुपान मंजरी में निर्दिष्ट अन्य द्रव्योंकी सूची ४-२७,३२, ७ लाजा (सृष्टकमलबीज) ८ शर्करा सिता ४९. १-९,३-७ ४-८,१०, ५-८ ४-८,१०,२३, ४-२७, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५-३२ १-५, ३- ४,९,११,१९ परिशिष्ट ४ For Private And Personal Use Only ,३५, १-४,६,७,८,१४, २- १०, १६, १८, २०, २२,३- १३,१४,१६,१७,१८,४-१८, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra क्रमांक १ २ ३ * 6) 6 ९ १० ११ १२ वनस्पति नाम अर्क अनल अपामार्ग अम्लवेतस आर्द्रक भामलम् उग्रा उच्चटा ऊषणम् कटुय www.kobatirth.org 'आलिकम् २-२० अश्मभेद ग्रन्थ सन्दर्भ ५-९ २-१५ ३-१३, १५, १४, आक, मदार आंकडो ८, १०, ११, १५, १७, २७, २८, २९, ५-३, १९, २४, ५-३२ ५-३२ ५. ३-२ ४-४/५-३१ ३-१० ३-९ ४-१७/५-३१ ४-१६ अनुपानमंजरी में उल्लिखित हिन्दी नाम भिलावा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिरचिटा अम्लवेतस इम्ली पखानभेद अदरक आंवला वच गुंजा मरिच सोंठ, मरिच, पिप्पली For Private And Personal Use Only गुजराती नाम भिलामो अवेडो अम्लवेतस आंबली पाषाणभेद आदु आंवला वज चणोठी मरी सूंठ, मरी, पीपर Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra औदभिद्रव्य विवरणतालिका अंग्रेजी नाम Gignatic Swallow wrot Rough chope tree Temarind tree Zinzer Root Sweet flagroot www.kobatirth.org Beed tree Black Pepper ५१ लेटिन नाम Zinziber Officinale The Elinic myrolalans Philanths Fmblica 1 Calotropis Gignatea 2 Calotropis Procera क्रमांक ७४ अनुसार Achyranthas Aspera Garcinia Peduncuta Temarindus Indicus Bergenia Ligulata Acorus Calamus Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Abrus Prectorius Piper nigrum For Private And Personal Use Only परिशिष्ट - ५ वर्ग Ascalppiadaceae Amaranthaceae Guttifereae Ceasalpiniaceae Saxifregaceae Scitaminaceae Euphorbiaceae Araceae Papillionaceae Piperaceae Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ५२ . कमांक वनस्पति नाम ग्रन्थ सन्दर्भ हीन्दी नाम गुजराती नाम - कोंचा कपिकच्छु कर्णवीर ४-१६, २८, २९, केवांच ३-१३ कनेर करेण १५ १६ करंज कुटज ४- १३ ५-१२।। करंज करंज कुडा कुरैया कडो कुमारी कुवार कुलत्थ कलथी कुष्ठ कट कूष्माण्ड भूरुं कोलु ४-९/५ -३/५-१४ ग्वारपाठा २--१४/५-२ कुलथी ४-४ २-३, ४, ५, ६, पेठा, कुम्हडा ८/३-१२ वायविडंग ३-२/४ ३३/ पीपल ५-३१, ३ः/ ३-१२ कोदरा मिघ्न वावडींग कृष्णा लीडीपीपर कोद्रव कोदरा खजर खर्जूरी खदिर गोजिहवा ३-१० २-१७ ४-५ खेर गलजीभी गोजो ५-२९ गेहूं घउं गिलोय २७.. गोधूम २८ गुडूची २९ गुंजा ३० धन ५-३२ मोथा For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ५३ अंग्रेजीनाम लेटिननाम वर्ग Cow Hedge Plant Mucuna Pruriens Papilionaceae Sweet Seented Neriuna odorum Apocynaceae oleander Pongamia glabra Papilionaceae Kurchi Conessci Bark Holarrhen Apocynaceae Antidysentrica Aloe Plant Aloe Vera Lileanaceae Horse gram Dalichos Bittorus Papilionaceae Costus Root Soussurca Hospa Compositeae White Pumpkim Benicasa hispida Cucurbitaceae Bebreng Long Pepper Embalia Rebes Pipper Longerm Mystranaceae Piperaceae: Data Palnu Paspaluin Gramineae Serobiculuntuns Phoenix Sylvestris Palmal Acacia catachu Mimoceac Elephentopsus Compositeae Seaber Trictuna Vulgaroe gramineae Tinospora Cordifolia Menispermaceae अनुक्रम १. अनुसार Cyperas Rotundus Cyperaceae Wheat For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रन्थसन्दर्भः हिन्दीनाम गुजरातीनाम - - - ३१ चणक . चणा ३२ चन्दन चन्दन,सुखड आंबली ३३ चिचा ५-३२,२९. . चना ४-४ सफेदचंदन १-१६,३-१५॥३-१८ इमली जम्बीरीनीवू २-७,११। जीरा ४-३७।५-२९ चावल ३-७ तिल २-३,४.५, :, तुलसी सरीवन गोदडियालींबु जीरु ३४. जम्बीरी ३५ जीरक ३६ तन्दुल ३७ तिल ३८ तुलसी ३९ त्रिपणिका चोखा तल तुलसी तिपानीसमेरवो ४० त्रिफला १-१०॥४-४।५-२। हरें,बहढां,आंवला हरडे,बहेडा, प्रांबला निशोथ नसोतर ४१ त्रिवृता १-११ १-९१५-१२ इलायची एलची २-३,४,५,६, दालचीनी तज ४४ दन्तीबीज दन्ती नेपाळो १-१५॥२-१४॥३-१० अनार दाडम द्राक्षा द्राक्ष ४५ दाडिम ४६ द्राक्षा ४७ दारु ४८ दुरालभा मुनक्का देवदार देवदार २-८ धमांह धमासा For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अंग्रेजीनाम Bengal gram Sandle wood Tamarind tree Lemon Cumin Seed Rice Sesamum Secred Basil Cardamum www.kobatirth.org लेटिनाम Grape Cedar Cicer Arietinun Lim Santatum Album Tarmarindus Indicus Citrus Limon Cuminum Cyminum Oriza Sativa Sesamum Indicum Ocimum Samentum Desmodium gangaticum "" Baliospermuna montemum Pomagranate Punica Gromatun Vitis Vinifera Cedrus Devdar Fogomia Arabica Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'Operculina turpettam Cenvalvulaceae 21pomaca Ellentria Cardamone Cimamon Bark Cimamomun montanun For Private And Personal Use Only वर्ग Pappilionaceae Santalaceae Ceasalpiniaceae Rutaceae Unbellifereae Gramineae Pedaliaceae Labiateae Pappilionaceae Seitaminacea Lauraiceae Euphorbiaeeae Puniceae Vitaceae Conifereae Zygophyllaceae Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - क्रमॉक वनस्पति नाम ग्रन्थ सन्दर्भ हिन्दी नाम गुजराती नाम ४९ दूर्वा १-१३ दूब ध्रो ५० देवकुसुम २-१२।५-३५ लोंग लवींग धत्तुरा धतूरो धनिया धाणा ५१ धत्तूर ५२ धान्यक ५३ धाश्री ५४ नाग ५५ नागफेन २-१८१३-१६ २-१३ २-३ ३-१,२, ४-२२ २-२।४-३० ५६ नागवल्ली ५७ निशाद्वय नागकेसर नागकेसर अफीम अफीण पान नागरवेल हलदी और दारु हलदर तथा हलदी दारु हलदर लिम्बू नील गली २-१६ निम्बु पटवण, वण ३-४ ५-३२ खडसलियो फालमा फालसा डुगरी ४-१०/४-३७ प्याज ५८ निम्बु ५६ नीलिका ६० पट वण वृक्ष. ६१ पपंटक ६२ परुष ६३ पलल ६४ पलाण्ड ६५ पिचुमन्द ६६ पिप्पली ६७ पुनर्नवा ६८ पूगीफल ६९ फलिनी नीम लीमडो ५-७ ४-३३/५-३६ ४-२८, २६ ३-११ लाल पुनर्नवा साटोडी सोपारी सूपारी खीरी रायण For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अंग्रेजीनाम लेटिनाम ari LAN Gramineae Myrtaceae Cruping Cynodon Deetylon Cymodon Clores Carryophyllus Aromaticus Datura Metel Coriander Seed Coriandrum Satiram क्रमांक ८ अनुसार Mesua Ferrea Opium Papaver Somniferum Betel Leaf Piper Betel Solanaceae umbellifereae Guttifereae : Papaveraceae Piperaceae Line Indigo Citrus Acida Indigo Teratintodia . Arboreum Religiosa Justicia Procumalars Griwia Asiatica Alium Copa Rutaceae Papillionaceae Malvaceae Acanthaceae Tiliaceae Liliaceae Asiatic griwia Anion Nimb tree Maliaceae Pigored Betel nat Palm pred Milia Azadirata क्रमांक २२, अनुसार Boerhovia diffusa. Araea Cotachu Mimusops Hexandra Nyeteginaceae Palmeae Sapotaceae For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ग्रन्थ सन्दर्भ हिन्दीनाम गुजरातीनाम ७० बाणपुखा ४-.१४, १८ सरपंखा सरपंखो ७१ बृहत्क्षुद्रा ७२ भंगा ७३ भल्लातक ३-१ कटेली, भूईकटेई उभी भोरीगणी ३-८ भांग भांग ३-५६,७४-२८ भिलावा भिलामा २-६ चिरायता भंगरा करियातु भांगरो मीढोल ७४ भूनिम्ब ७५ भृगराज ७६ मदनकफल मरिच मुस्ता ७६ मृद्रीका ८० मेघनाद कालामरी मेनफल २-१५/४-११/५-३१कलिमिर्च ४-२८, २६/५-३२ मेाथ ३--१० मुनक्का २.१६/३.५, ६, चौलाई मेय द्राक्ष तांदलजो महेंदी सनाई में दी मिढी प्रावल रसांजन रसांजन ५-३१ लसण २-८ ८१ मेन्दी ८२ मेषशगी ६३ रसांजन ... रसोन , ८५ राजहंसी ८६ राम १७. राल ८८ लज्जा ८९ लवंग ९० वचा लहसुन हंसराज हिंग राल लज्जावन्ती हंसराज हिंग ४-२८, २९ राल लजामणी लवंग लविंग २-१२।४-६ वच् वज For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acha अंग्रेजीनाम लेटिननाम Purple Teph- Tephrosia Purpuria Papillionaceae rosia Solanim Indicum Solanaceae True Hemp Conmabis Sativa Urticaceae Marking nut or Semecarpus Anaca Anacardiaceae dholis nut Cardium Chireta Swertia Chirata Gentianaceae Trailing Ediptra Elipte Alba Compositeae Bushy gardania Randia Dumetoruna Rubiaceae Black pipper Piper nigrum Piperaceae क्रमांक ३० अनुसार क्रमांक ४१ अनुसार Ameranthus Tricolor Amaranthaceae Henna Losonia Alba Cassia Angustifolia Lythraceae Caesalpiniaceae Semna Garlic Allium Sativum Maiden hair Adiantum Lunulatum Assafoctida Ferula Alliaceae Sporia Rolustra Sensitive Plant Mimosa Pudica कमांक ५० अन्सार Sweet flagroot Acorus Calamus Liliaceae Filiceae Umbelliferae Dipterocarpceae Mimosaceae Araceae For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १-१. ९२ ९३ ९४ ९५ ९६ ९७ ९८ १९ १०० १०१ वज्री ११० वत्सनाग वनत्रीही वरा वृष वृक्षाल वृन्ताक वन्ध्याraat व्याललता विडंग विषकोच १०२ शक्रवारुणी १०३ शतपुष्पिका ૧૦૩ शिशु १०५ १०६ १०७ १०८ १०९ शुठिका श्वेतदूर्वा श्रीमूल सर्वाक्षी स संदेसा www.kobatirth.org ग्रन्थ सन्दर्भ ३-१४ ३-४ 9-8 ५-३१ ५-३२ ३-१३ ३-३ ४-२ ५-३१ ४-३२. ३-१७१४-१३ ४-५... २-३ ४-१६ ३-८/५-३४ १-१४ ४-३१ २-१० ३-६ ३-८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दीनाम कटथूर वच्छ नाग सौंफा त्रिफला अडसा अम्लवेतस बैंगन कंकोडा भूकटेरी बायविडंग कुचला इन्द्रायन सोया सहिजन सौंठ सफेद दूब बेल सरसों For Private And Personal Use Only गुजरातीनाम थोर, कंटालो वछनाग वरीयाली त्रिफला अरडुसी अम्लवेतस रंगणा कंटोला भोरींगणी बावडींग झेरकोचला इन्द्रामणां सुवा सरगवो सूठ सफेद धो बीली शरपंखो सरसव संसरो Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अंग्रेजी नाम Aconide Munashood Fenel Seed क्रमांक ४ अनुसार Babreng Poison nut www.kobatirth.org ७१ अनुसार Repe, Black mustard ६१. 'लेटिननाम در Ephorbia Niviulia Nerifalia Aconitun ferox wall Foeniculum Vulgarea Umbellifereal Sulanuna xatho carpam Embelia Ribes Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Adhotoda Vasaca Acanthaceae Colocyntt Dill Seed Horse Redish tree Moringa obefeta Ginger Zinziber officinale Cruping Cynodon Cynodon Deetylon Aegle Marmeles Solanium Melongena Solanacae Momordica Dioidica Cucurbitaceae Solanaceae वर्ग Brassied nigra Euphorbiareae Ranunculaceae Poinciantic Elata Strychnoma nux Vomica Citrullus Colocynthes Cucurbitaceae Peneedonum graveolens umbellifereae Moringeceae Scitaminaceae Gramineae Rutaceae For Private And Personal Use Only Myrsinaceae Longiaceae Crucifereae Caesalpiniacea Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ग्रन्थसंदर्भ हिन्दीनाम गुजरातीनाम १११ सिद्धार्थ ४-२८,२९ सरसों ३-१४।४-२३॥ कटथूहर सरसव थोर कंटालो ११२ स्नुक सोनेरी हरहे हरे ११३ सौवर्णपुष्पी ११४ हरीतकी ११५ हेमाहरीतकी ११६ हिंगु १-४,१२ १-७१५-३४ ४-१५,५-३१ हिंग हिंग ★★ For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ अंग्रेजोनाम लेटिननाम वर्ग क्रमांक १०९ अनुसार क्रमांक ९१ अनुसार Myrobalans terminalia chebula Combretaceae क्रमांक ८६ अनुसार For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अनुपानमंजरीमें धातु और उपधातुके नामसे अनुपानमंजरी शाङ्गधर भावप्रकाश रसरत्नसमुच्चय धातवः १ . अयः . धातु धातु धातु धातु धातु २ आर ३ कृपाणिकालोह - धातु घोष उपधातु ताम्र धातु धातु धातु नाग धातु धातु धातु उपधातु धातु धातु धातु धातु मण्डूर धातु धातु धातु धातु धातु १० रौप्य ११ सुवर्ण धातु धातु धातु उपधातवः १ अभ्रक उपधातु उपरसः महारस उपरत्न २ काच ३ कासीस ४ गैरि उपरस उपरस उपरस उपरस For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४ धातु निर्दिष्ट खनिज द्रव्यों की रसशास्त्रीय परिभाषा सूची परिशिष्ट नं. ६ रसप्रकाशसुधाकर रसोपनिषद् रसहृदयतंत्र आनन्दकन्द रसेन्द्र चूडामणि ६ ८. 1 धातु धातु धातु धातु धातु धातु / धातु धातु महारस 1 उपरस उपरस धातु 1 धातु धातु धातु धातु धातु धातु धातु धातु उपरस www.kobatirth.org उपरस धातु 1 धातु / धातु धातु धातु धातु धातु ६५ धातु 1 उपरस उपरस भातु धातु धातु धातु धातु धातु धातु धातु धातु धातु उपरस उपरस उपरस उपरस Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only उपरख Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुपानम जरी शार्ङ्गधर भावप्रकाश रसरत्नसमुच्चय ताल ताल उपधातु उपरस उपरस ६ तुत्थक उपधातु उपधातु महारस ७ तौरी उपरस उपरस नवसादर साधारणरस पारद ० प्रवाल रत्न ११ बलि उपरस उपरस उपरस १२ मनःशिला . उपधातु उपरस उपरस १३ मल्ल माक्षि १५ मुक्ता उपधातु उपधातु महारस रत्न रत्न रत्न १६ मृदासंग साधारणरस १७ मृत्ति - उपरस उपरस १८ रसकपूर १९ शिलाजित २. हीरक धातु रत्न उपधातु रत्न महारस . रत्न . For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar - रसप्रकाशसुधाकर रसोपनिषद् रसहृदयतंत्र आनन्दकन्द रसेन्द्रचूडामणि ५ उपरस उपरस उपरस उपरस उपरस महारस महारस महारस महारस उपरस उपरस उपरस उपरस उपरस उपरस उपरस साधारणरस - रस रस रस रस रत्न - रत्न - उपरस उपरस उपरस उपरस उपरस उपरस उपरस उपरस महारस महारस महारस उपरस महारस रत्न रत्न - - रत्न - उपरस साधारणरस - - - - - : - - - - - - महारस उपरस महारस रत्न रत्न - रत्न For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनुपानम जरी धातवः १ ४ २ आर ३ कृपाणिक लोह घोष ५ ६ 6. ८ १० अयः ११ उपधातवः ताम्र ९ मण्डूर रौप्य सुवर्ण नाग पिंग बंग १ अभ्रक २ काच कासीस ३ ४ गैरि ५ ताल www.kobatirth.org रसेन्द्र सारसंग्रहः ९ धातु 1 धातु धातु धातु धातु धातु धातु धातु धातु धातु उपरस I उपरस उपरस उपरस Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसार्णव १० धातु धातु धातु धातु | धातु I धातु धातु 1 1 उपरस उपरस उपरस For Private And Personal Use Only आयुर्वेद प्रकाश. ११ धातु धातु उपधातु धातु धातु उपधातु धातु धातु धातु धातु महारस उपरस उपरस उपरस उपरस Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar रसकामधेनु रससंकेतकलिका १३ धातु धातु धातु धातु धातु उपधातु धातु धातु धातु धातु उपधातु धातु धातु उपधातु धातु धातु धातु धातु महारस महारस उपरस उपरस उपरस उपरस उपरस उपरस For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनुपानम जरी ६ ७ ८ नवसादर ९ पारद १० ११ १२ तुत्थक तौरि १३ मल्ल १४ माथि १६ प्रवाल १५ मुक्ता १७ बलि मनः शिला मृदासंग मृत्ति १८ रसकर्पूर १९. शिलाजित हीरक २० www.kobatirth.org रसेन्द्र सारसंग्रह ९ उपरस रस रत्न उपरस उपरस 1 उपरस रत्न 1 1 T उपरस ७० उपरस रसार्णव १० महारस उपरस --- रस रत्न Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपरस उपरस I महारस रत्न 1 1 उपरस रत्न For Private And Personal Use Only आयुर्वेदप्रकाश ११ उपरस उपरस साधारणरस रस रत्न उपरस उपरस 1 उपरस रत्न 1 { 1 उपरस रत्न Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कामधेनु १२ महारस उपरस साधारणरस रस रत्न उपरस उपरस उपरस महारस रत्न 1 I 1 महारस रत्न महारस रससंकेतलिका १३ उपरस उपरस रस रत्न उपरस उपरस उपरस महारस रत्न । उपरस 1 महारस www.kobatirth.org रत्न ७१ २ १ शाङ्गघर ६ ३ रसरत्नसमुच्चय ४ रसप्रकाशसुधाकर रसोपनिषद् रसहृदय तंत्र १० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रन्थनामानि ७ आनन्दकन्द ११ ८ रसेन्दचूडामणि सेन्द्र संग्रह रसार्णव १२ भावप्रकाश १३ आयुर्वेदप्रकाश कामधेनु रससंकेतकलिका For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट-७ विकार शमनार्थ निर्दिष्ट अनुपान सूची प्रथमसमुद्देश : अनुपानम् ग्रन्थसन्दर्भः धातुसुवर्ण १ सिता मधु सिता हरीतकी शर्करा वनत्रीहिः हेमाहरोतकी मेषशंगी त्रुटि: त्रिफला चूर्ण सिता मधु-खंड आर সিমান্ত अयः त्रिवृता सैन्धवम् १-११ मधु १-१३ सिता १-१४ १-१५ दूरिस: १० मण्डूर हरीतको कृपाणिलोह श्वेतदूर्वारसः १२ पिंग पक्वदाडिमफलरस १३ घोष चिंचाफल द्वितीयसमुद्देश : उपधातु१ मलसेयुतपारदः पाचितगन्धकः गन्धक: नागवल्लीदल २-२ For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan ७३. उपधातु अनुपानम् अन्थसन्दर्भः ३ सूत २-३,४, द्राक्षा, कूष्माण्ड, पयः तुलसी, शतपुष्पिका, लवंग, तज, नाग, समांशकः गन्धकः नागवल्लीरस, भंगराजरस, समांशक छागदुग्ध तुलसीरस, ) (मर्दन) ४ " जीरक शर्करा कूष्माण्डरस दुरालभारस राजहं सीरस सौवर्णपुष्पी क्वाथ भूनिम्ब साक्षीरस सिताः गन्धक गोदुग्ध २.१. १० मनःशिला जीरक माक्षिक ११ बलि २-१२ गोदुग्ध देवकुसुम, नचा, १२ अभ्रक धात्रीफल २-१३ For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १३ १४ शिलाजित १६ १५ मल्ल १७ उपधातु माक्षि 37 २० २१ 34 CE १८ तुत्थकम् कर्पर १९ मृदासंग नवसार मृत्ति, गैरिक कासीस, काच, तौरी. मुक्ता, प्रवाल stee www.kobatirth.org ૭૪ अनुपान कुलत्थकषाय दाडिमत्वचा मरिच अम्लवेतस मेघनादरस निम्बू खदिरोद्भूत धान्यक महिषीशकृत् arative बाजा गोघृत अम्लकरस गर्दभशकृत् घृत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " सिता गोपयः सिता बारि सिता घृत, मधु, सिता गोदुग्ध For Private And Personal Use Only ग्रन्थसन्दर्भ २-१४ 34 २-१५ 19 " २-१६ 33 २-१७ २-१८ २-१९ 15 २-२० 93 २-२१ २-२२ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयसमुदेश : - स्थावरविष अनुपान ग्रन्थसन्दर्भः नागफेन दुग्धम् बृहत्क्षुद्रारसः उग्रा, सिन्धु, कृष्णा, मदनफलमना : ४ बस्तनाग . ३ वृन्ताकफलरस पटवणवृक्षरस शर्करा मेघनादरसलेप नवनीतयुक्त दारु, सर्षप, मुस्ता सनवनीत लेप, नवनीत, तिल, दुग्ध - लेप खण्ड + घृतलेप गोदधि, शुंठी आईक संदेसडा मूल ९ उच्चटा १. मद्य.. मेघनादरस शर्करा दुग्धसेवनम् मधु, खर्जुरी, मृद्वीका, वृक्षाम्ल, अम्ला, दाडिम, परुष, आमल For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ११ १२ १४ १३ कर्णवीर स्थावरविष पूगीफल कोद्रव १ वज्री १५ स्नुही अर्क २ >> १६ दन्तीबीज १७ कोचक चतुर्थः समुदेश : जंगमविष पन्नग " www.kobatirth.org शीतवस्त्रवात शर्करा, अनुपान सुशीतलं क्षीर कूष्माण्डरस माहिषं दधि माहिषं पयः अर्कत्वचा ७६ शीतवारि वस्त्रवायु शीतच्छाया जलपिष्टचिंचा पत्रमर्दन धान्यक घृत हैमगिरिजलपान अनुपान करे लज्जामूल स्य बन्धनं लेपश्च Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मधु गुडः सिता 99 33 सिता सिता मधु + सिता For Private And Personal Use Only प्रन्थसन्दर्भः ३-११ 37 ३-१२ 53 -३-१३ 35 " :) ३-१४ 33 د. ३-१५ "2 ३-१६ ३-१७ मन्थसन्दर्भः ४- ३ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३ ५. ६ ८ ९ १० ११ जंगमविष पन्नगविष सर्पादिगरल सर्पदंशावरोव सर्पविष श्वानविष 33 23 श्वानविष सर्व कीटविष www.kobatirth.org घृत ७७ त्रिफला, चन्दन कुष्ठ, आर्द्रक घृतसंयुत लेपः अनुपान गोजिल्हा, फलिनी, शक्रवारुणी, त्रिपर्णिका बाघृष्ट मठ करबाहुलेप उन्मत्तश्वानविष कुमारीदल, सैन्धव अलर्कविष तिलतैल, पलल, गुड अर्क क्षीरपान 33 कुक्कुटविष्ठाप गुड+तैल+अर्कदुग्भलेप - शुष्कार्कमूल, समरिचभक्षण लोलकादाह चोक आज्य 32 १२ उदरगतद्दृष्टजन्तु जल पिष्टकोच कपान ऊषण घृतम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुखोष्णजलपान For Private And Personal Use Only प्रन्यसन्दर्भ ४- ४ ४- ५ ४- ६ ४-७ ४- ८ ४ ४-१० ४-११ 35 ४-१२ 59 ४-१३ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ७८ - - जंगमविष अनुपान ग्रन्थसन्दर्भ - १३ वृश्चिकविष शर्करा वाणपुखरस मेघनादरस अर्कायो-घृष्टहिंगुलेप १५ गृहगोधिकाविष कटुत्रय, शिग्रुबीन, करंगबीज, निशाद्रव, कपिकनीम पान और लेप १६. सरठाविष शीतवारि अर्कमूलत्वचा पूर्ण १७ .. मूषविष बाणपुंखरस सिता ४-१९,२ १८ श्वेतमूषकजन्य अन्धि विस्फोटन गार्दभशकृत्पान १९ सिंहबालशष्पं मधु ४-२१ भ्रामरीमक्षिका ४-२२ माहिषनवनीत । माहिषतक . विष न २१ कर्णप्रविष्टवर्जर कणे मूत्रप्रक्षेप तिलतैलप्रक्षेप For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २२ २३ २४ २५ जंगमविष २८ डं प्रवेश (कर्णे) दशः २६ मत्कुण ३० न्दरवि जलविषविकार २७ मूषक, मशक माक्षी, मत्कुण, विषकीटक यूका २९ यूकादिक्षा षावा 33 www.kobatirth.org ७९ अनुपान कर्णे मूत्रप्रक्षेप तिलतैलप्रक्षेप तालुका मृतप कांजिकापान मण्डूर, गार्दभशकृत् अनाशकृत् याकभाविता अर्कतूलमयीवर्ति कटुतैलप्रदीपस्था भल्लात, अर्कफल, मुस्ता, कपिकच्छु, पुनर्नवा, राल, सिद्धार्थ धूप नागवल्लीरस मर्दितीवर धारण गोलपिष्टश्रीमूल शिला, गन्धक For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रन्थसन्दर्भ ४-२३ ४-२४ ४-२५ ४-२६ ४-२७ '४-२८,२९ ४-३० ४-३१ ४-३२ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar जंगमविष अनुपान ग्रन्थसन्दर्भ - - गोमूत्र, विडंग, 1. कटुतैल स्नूकारभाविता पिप्पली . ३१ उदरप्राप्ता ... . षट्पदिका .३२. प्रातु-उपधातु, वमन स्थावर-जंगविणं विरेचन च For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अनुपानमंजरीमें निर्दिष्ट विविध रोग और अनुपान सूची परिशिष्ट-८ - - रोग अनुपान ग्रन्थसन्दर्भ १ अतितिः २ अपस्मारः कुटजः ५-१२ तैलं सुशीतलो वायुब ५-३५ हेमाहरीतको बलिः च ५-३४ ३ अश्मरी वृषः ४ ५ असपित्तम् अंगनामदनमहः अभ्रकम् ५-२० उदरम् ७ ऊर्ध्ववातः स्नुक् पिप्पली देवपुष्प पचा ८ कुष्ठम् सूतः तालम् कृमिघ्नः हेमाहरीतकी बलि: ५-३५ ५-१६, १. ५-१७ ५-३१ ५-३४ ५-१६, १७ ५-१६ ५-३२. कमिः कृच्छम् । कृशता १३ क्षयः १४ गुदकील: १५ ग्रहणी १६ जन्तुविकारः सूतः गुचिका भनलः मथितम् ५-३२ सूतः ५-१६, १७ ७ जरा For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रोग अनुपान - ग्रन्थसन्दर्भ घनपर्णटकः ५-३२ १८ जीर्णज्वरः १९ ज्वरः २० तक्रमेहः २१ दोषाणां त्रितयः २२ पलितः २३ पाण्डुसेमः अभ्रकम् सक्षौद्रमार्दोदकम् सूतः लोहः मण्डूरं च ५-३१ ५-१६, १७ ५-५ . २४ पाण्डस्:. अयः पुराणज्वरः ५-३६ ५-३१ ५-३६ - रसासनम् سم जस्तः ५-१२ مه २६ प्रदर... २७, प्रमेहः-.. बुद्धिप्रंशः भूतः । देवपु वचा ५-३५ سه له ३० मधुमेहः। لم ५-२० ३६ : मूर्छा.. ३२ मेहः -अभ्रकम् तैलं सुशीतलो वायुश्च ५-३५ . सूतः ५-१६, १७ सोपला वरा ३४ रक्तविकारः तालम् ५-२७ ५-३३ ३५. रक्तस्राक अश्मभेदः राजा (भृष्टकमलबीबम्) ५-३२. ३६ बमी For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan -- - रोग अनुपान ग्रन्थसन्दर्भ - -- - ३७ वातः साज्यः रसोनका तालम् ५-२७ वातरक्तम् बलिः ५-३४ ४० विषम् तालम् ५-२७ ५-३२ हेम ४१ , ४२ विचिका ४३ विस्फेाटवातः वृकि ? व्रणः सूतः दम्भनक्रिया शुण्ठिका शिरारोगः ५-३४ शीतः श्लेष्मा श्वसनकः ५-३१ शूलम् षाण्ढयम् समरिचल्याललतादलम् ५-३१ तालम् ५-२७ सक्षौदं न्यूषणम् घृतान्वितहिंगु ५-३१ सूतः ५- १६, १७ चिंचाम्लकम्, मधुसितायुक्तं ३-१८ (१) जल मधु शर्करायुक्तं ३-१९ (२) धृतपिष्टनीलिकालेपः छागमूत्रभावितबन्ध्याकर्कोटकी- ४-२ मूलकांजिकसंपिष्टनस्यम् टूकरोगः ५२ दाहः ५३ विषोपहतचेतः For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only