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११ मण्डूरविकारशान्तिः
हरीतकी च मधुना खादयेत् यो दिनत्रयम् । तस्य मडूरशान्तिः स्यात् स्नाने देहमलं यथा ॥१३॥
जिस प्रकार स्नान करनेसे देहमलको निवृत्ति होती है, उसी प्रकारसे मधुयुक्त हरीतकीका तीन दिन पर्यन्त सेवन करनेसे मण्डूर के विकार की शान्ति होती है ॥१३॥
१२ कृपाणिकालाहविकारशान्तिः
श्वेतदूर्वारसं यो नै मितायुक्तं पिबेन्नरः । तस्य कृपालिकालाहविकारशान्तकारकम् ॥१४॥
शर्करायुक्त श्वेतदूर्वाके रसका पान करनेसे कृपाणिका लोहके विकारकी शान्ति होती है ॥१४॥
१३ पिंगविकारशान्तिः
दाडिमम्य फल पक्वं जल तस्य पिबेन्नरः । पिंगविकारशान्तिः स्यात् पातक गुरुवन्दनात' ॥१५॥
जिस प्रकार गुरुको वंदन करनेसे पापकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकारसे पक्व दाडिम फलके रसका पान करनेसे पिंगविकारकी शान्ति होती है ॥१५॥
१ अयं श्लोक: ज पुस्तके द्वितीयसमुदेशे तालविकारशान्ती उल्लिखितः ।
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