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४९ गृहगेोधिका विषशान्तिः
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हिंगु चार्कपयोघृष्टं दष्टापरि च दापयेत् । वृश्चिकस्य विषं हन्ति यथा रजनीं धुपतिः || १५ ||
जिस प्रकार सूर्योदयसे रात्रीका नाश होता है उसी प्रकार अर्क दुग्धमें हिंगु पीस कर दंशकें और लेप करनेसे वृश्चिक के विषका नाश होता है ||१५||
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कटुत्र शिशुकर जबीज द्वयं निशाया कपिकच्छुवीजम् । निहन्ति पानेन विलेपनेन विषं समग्र गृहगोधिकायाः || १६ ||
त्रिकटु, शिशुबीज, करंजबीज, हरिद्राद्वय तथा कौंचेका बीज - इन सबको एक साथ पीने और लेप करनेसे गृहगोधिका के विषका नाश होता है ||१६||
५१ मूषकविषशान्तिः
सरठविषशान्तिः
अर्कमूलत्वचाचूर्ण पीतं शीतेन वारिणा ।
सरठस्य विषं हन्ति तत्क्षणान्नात्र संशय ||१७||
शीतल जलके साथ अर्कमूल त्वचा के चूर्णका सेवन करने मे सरठ के विषका तत्क्षण नाश होता है, इसमें कोई संशय नहीं है ||१७||
सितया सह पानं तु बाणपु खरसः पलम् । यः पिबेत् प्रातरुत्थाय मूषकस्य विषापहम् ||१८||
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