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'चोकमाज्यमथा चादौ देयं श्वानविषापहम् । अन्येषां सर्वकीटानां विष हन्ति चराचरम् ॥१२ ।
श्वान विष एवं अन्य सभी प्रकारके विषकीटोंका विष दूर करनेके लिए सर्व प्रथम शुद्ध घृतका पान करना चाहिए ॥१२॥
४७ उदरगतदुष्टजन्तुविषशान्तिः
विषकाचं जले पिष्ट्वा नित्य पिबति यो नरः । तस्योदरे दुष्टजन्तून् विनाशयति तत्क्षणात् ॥१३॥
जो पुरुष जलमें पीस कर विषकोच-कुपीलुका पान करता है, उसके उदरमें अवस्थित सर्व प्रकारके दुष्ट जन्तु तत्काल नष्ट होते हैं ॥१३॥
४८ वृश्चिकविपशान्तिः
बाणपुखरसोपेतं मेघनादरसस्तथा । शर्करासहित पानं विष वृश्चिकजं हरेत् ॥१४॥
शरपुंखके रसके साथ ('अहिफेन) और शर्कराके साथ मेधनाद रस पीने से वृश्चिक विष दूर होता है ॥१४॥
१ श्लोकोऽयं ज पुस्तके नोपलम्यते ।
२ मूलमें अहिफेन वाचक शब्दका निर्देश न होने पर भी उपेत शब्द किसी
अन्य शब्दके अध्याहृत होने का संकेत देता है और अनुपान मंजरीकी उपलब्ध प्राचीन गुजराती टीका में साक्षात अफीमका उल्लेख मिलानेसे यहां अहिफेन द्रव्यका ग्रहण किया गया है ।
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