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गोजिहा फलिनी शक्रवारुणी वा त्रिपर्णिका । एकैकपानमात्रेण सर्पादिगरलं हरेत् ॥५॥
गोजिह्वा, फलिनी, इन्द्रवारुणी और त्रिपर्णिका-इनमेंसे किसी भी एकके रसका पान करनेसे सर्प आदि विषका हरण होता है ॥५॥
सरामठा वचा घृष्टा करबाहुप्रलेपनात् । घटसर्पास्तदा ग्राह्या न दशन्ति कदाचन ॥६॥
हिंगु सहित वचाको घिस कर और बाहुमें प्रलेपन करनेसे घटस्थित सोका ग्रहण करने पर सर्वथा दंशका भय दूर होता है ॥६॥
यथा खलस्य गैषम्यात् पीडितो याति सज्जनः । तथा वचाया धूपेन गृहं मुक्त्वा व्रजदेहिः ॥७॥
जिस प्रकार दुर्जनके विषम व्यवहारसे पीडित सज्जन पुरुष दूर चला जाता है उसी प्रकारसे वचाके धूपसे सर्प घर छोड कर दूर चला जाता है ॥७॥
'(तुत्थं चोप्रा कामफल गोदुग्धेन च पाययेत् । तस्मात् सर्पविषं याति तथोषणघृतेन च ॥
(तुत्थ, वचा और मदनफलको गोदुग्धके साथ पीलानेसे तथा मरिच सहित घृत पीलानेसे सर्पविष दूर हो जाता है).
१ ग, घ, च, छ, ज पुस्तकेषु अधिक: श्लोकः
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