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८२ तालमारणम्
तकेण तं च प्रक्षाल्य खल्वमध्ये च मर्दयेत् । तालचतुर्था शघृतेन पुनः तालं च मर्दयेत् ॥२३॥
तद्वन्मधु तथा दुग्धे तत्तुल्यां शर्करां क्षिपेत् । पश्चादर्कपये मद्यं चक्राकार तु कारयेत् ॥२४॥ शरावसंपुटे क्षिप्त गजपुटे तु तं दहेत् । पश्चात् खपरिके दग्धं श्वेतवर्ण च जायते ॥२५॥ निर्गन्धं निधूम तालमष्टमांशस्थितिः भवेत् । तन्मध्यात्तण्डुलमानं दद्याद्रोगानुपानतः । २६॥
इस शुद्ध पीत हरितालको तकसे धोकर खल्बमें मर्दन करना चाहिए । चतुर्थांश घृतके साथ इसका पुनः मर्दन करना चाहिए । इसी प्रकार पुनः चतुर्थाश मधु दुग्ध और शर्करा प्रत्येकके साथ पृथक् पृथक मर्दन करना चाहिए । इसके अनन्तर हरितालके समान प्रमाणके अर्क. दुग्धम मदन करके चक्रिका बनावें । इस चक्रिकाको शराव संपुटमें रख कर गजपुट दें । इसके अनन्तर खर्परिकामे रखकर जलानेसे हरिताल श्वेत वर्णकी हो जाती है । इस प्रकार निर्गन्ध और निर्धूम हरिताल अष्टमांश प्रमाणमें अवशिष्ट रहती है । उसमेंसे एक तण्डुल प्रमाण रोगानुसारी अनुपानके साथ देना चाहिए ॥२३-२६
८३ तालप्रशंसा
श्लेष्मरक्तविषवातभूतनुत् केवलं च खलु पुष्पहृत् स्त्रियाः । स्निग्धमुष्णं कटुकं च दीपनं कुष्ठहारि हरितालमुच्यते ॥२७॥
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