________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३८
हरिताल कफ, रक्तविकार, विष, वातविकार, और भूतबाधाको दूर करती है, स्त्रियोंके आर्तवको नष्ट करती है । यह हरिताल स्निग्ध, उष्ण, कटुक, दीपन तथा कुष्ठहारि है ॥२७॥
८४ अशुद्धतालसेवनदोषाः
हरति च हरितालं चारुतां देहजातां सृजति च बहुतापामंगसंकोचपीडाम् । वितरति कफवातौ कुष्ठरोगं विदध्यात इदमशितमशुद्ध मारित चाप्यसम्यक् ॥२८॥
अशुद्ध अथवा असम्यक् मारित हरिताल खानेसे देहके सौन्दर्यका हरण करती है, बहुतापयुक्त अंग संकोच पीडाको उत्पन्न करती है । कक और वायुको बढाती है और कुष्ठ रोगको उत्पन्न करती है ॥२८॥
८५ धातूपधातुसेवनकाले पथ्यापथ्यनिर्देशः
सर्वधातूपधातूश्च यदा सेवति मानवः । तस्मै गोधूमचणकांस्तण्डुलांश्च घृतं पयः ॥२९|| शर्करां भोजने दद्यात् तैलं क्षार च वर्जयेत् । अनुपानं सदा देयं पक्वापक्वे विचार्य च ॥३०॥
धातु और उपधातुओंका सेवन करनेवाले व्यक्तिको पथ्य भोजन के रूपमें गोधूम, चणक, तण्डुल, घृत, दूध और शर्करा देना चाहिए । परन्तु तैल और क्षार-लवणका त्याग करना चाहिए । धानु और उपधातुके पक्व और अपक्व स्वरूपको विचार करके अनुपानका निर्धारण करना चाहिए ॥२९-३०॥
For Private And Personal Use Only