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४५ पन्नगविषशान्तिः
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चतुर्थः समुद्देशः
'तरक्षुदंष्ट्रया रूपं वैनतेयस्य वातिकः । ?
कृत्वा बिभर्ति यो बाहौ तं दशन्ति न पन्नगाः ॥१॥
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तरक्षुनामक हिंस्र प्राणीके दांतको गरुड आकारके तावीजमें
रख कर बाहुमें धारण करने वाले पुरुषको सर्प दंश नहीं करते हैं ||१||
बन्ध्याकर्कोटकीमूलं छागमूत्रेण भावितम ।
नस्य काञ्जिकसंपिष्टं विषोपहतचेतसाम् ॥२॥
विषमूच्छित व्यक्तिको अजाके मूत्र से भावित बन्ध्याककोर्टकी मूलको कांजीमें पीस कर नस्यके रूपमें देना चाहिए ||२||
लज्जामूल करे बद्धवा विलेप्य सकलं वपुः ।
रमते फणिभिः सार्द्ध वातिको गरुडेा यथा ॥३॥
लज्जामूलका करबन्धन और संपूर्ण शरीरमें उससे विलेपन करने वाला पुरुष गरुड पक्षीके समान भयंकर सर्पों के साथ खेलता है ||३||
त्रिफला चन्दनं कुष्ठमार्द्रकं घृतसंयुतम् ! पानलेपसमायोगे दष्टस्य विषनाशनम् ||४॥
त्रिफला, चन्दन, कुष्ठ तथा आर्द्रकको घृतमें मिलाकर पान और लेप करनेसे सर्पदष्ट पुरुषके विषका नाश होता है ||४||
१ श्लोकोऽयं ज पुस्तके नोपलभ्यतें
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