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"षटपदी" शब्दका सामान्य मक्खी अर्थ न लेकर ग्रन्थकारने यहां षट्पदी शब्दका "जू” नामक अर्थ लिया है । मनुष्योंके उदरमें शिरःस्थ कृमिके प्रवेशसे जलोदर रोगकी प्राप्ति लोककल्पनाओं में प्रचलित है और इसीका अनुसरण मात्र ही यहां किया गया है । अन्य किसी प्रकार के अनुभव अथवा चिकित्सापरम्पराका समर्थन इस कल्पनाको प्राप्त नहीं है ।
उदरस्थ कृमिका उल्लेख जान्तव विषके प्रसंगमें देकर इसकी चिकित्साके लिए घृष्ट कुपील के पानका निर्देश भी विशेष रूपसे विचारणीय है।
पंचतंत्रकी एक कथामें उदरस्थ सर्पके निर्मूलन के लिए विषतिन्दुककार के प्रयोगका निर्देश है, परंतु निघंटुओं में कुपीलु का कृमिघ्न के रूपमें उल्लेख प्राप्त नहीं है।
सर्व प्रकारके विषोंके पथ्य वर्णन के समय धी, दूध, मधु, शर्करा भात, आदि स्निग्ध ओजोवर्धक भोजनको पथ्य तथा तेल. अम्ल, और निद्रा को अपथ्य कहा है । परंतु कुत्तेके विषमें रूम भोजन, तेल और पलांडको पथ्य माना गया है, यह भी विशेष विचार योग्य है । यहां लोक प्रचलित प्रथाका अनुसरण किया गया है ऐसा ही प्रतीत होता है । विषके प्रध्यमें माहिष शकत और गार्दभशकत को किस आधार पर पथ्य और किस प्रकार प्रयोग योग्य माना गया है यह भी स्पष्ट नहीं किया गया है ।
मुखस्य अमृत (यूक) से दंश स्थानको लिप्त करने से तत्काल दंश के निविष होनेका विधान भी इसी प्रकारकी लोक प्रचलित मान्यताका ही प्रतिविम्ब है।
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